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जैनपरम्परा का श्रावकाचारः आधुनिक संदर्भ में
- डॉ. कमलेश कुमार जैन
जीव या आत्मा को जड़ या अचेतन से भिन्न एक स्वतंत्र पदार्थ स्वीकार करके उसके सर्वश्रेष्ठ स्वरूप की खोज के रूप में मुक्ति या मोक्ष की अवधारणा भारतीय चिंतन का अद्वितीय अवदान है। जैन परंपरा में मुक्ति या मोक्ष प्राप्ति के लिए संन्यस्त एवं गृहस्थ की स्वतंत्र आचार संहिता का विधान व विकास हुआ है और आचार की परिपूर्णता के लिए वस्तु तत्त्व के प्रति सम्यग्दृष्टि और उसका परिज्ञान अपरिहार्य माना गया है। इन दोनों के बिना चारित्र का पालन भी सम्यक् नहीं हो सकता। यह चारित्र चाहे संन्यस्त श्रमण का हो अथवा गृहस्थ श्रावक का, दोनों के लिए सदृष्टि एवं शुद्ध ज्ञान अनिवार्य माने गये हैं। श्रमण या मुनि जहाँ मूलगुणों व उत्तरगुणों के आधार पर अपनी मोक्ष साधना के सोपान तय करता है, वहीं गृहस्थ श्रावक अहिंसादि बारहव्रतों, दर्शनादि ग्यारह प्रतिमाओं अथवा अष्टमूलगुणों या षडावश्यकों आदि के द्वारा अपनी मुनि या आर्यिका बनने की साधना पूर्ण करता है और अन्त में दोनों, सल्लेखना व्रत को धारण कर अपने शरीर का अन्त करते हैं।
जैन परंपरा में चतुर्विध संघ की स्थापना अहिंसा की प्रतिष्ठा एवं समभाव की साधना के लिए की गई है। जिस प्रकार वैदिक परंपरा में चातुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) व्यवस्था के द्वारा सामाजिक जीवन का विधान किया गया है, उसी प्रकार जैन परंपरा में चतुर्विध संघ (मुनि-आर्यिका अथवा साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका) व्यवस्था का प्रतिपादन है। इस समाज व्यवस्था का आधार भी पाश्विक वृत्तियों के नियंत्रण की दृष्टि से स्वतंत्र महत्त्व रखता है।
इस प्रकार जैन परंपरा में चतुर्विध संघ की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ये चार ऐसे घटक तत्त्व हैं, जिनके ऊपर जिनधर्म या जैन परंपरा का महाप्रासाद आधारित है। शास्त्रों में इन्हें श्रमण-श्रमणोपासक, अनगार-सागार, संन्यस्त-गृहस्थ, व्रती-अव्रती आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया है। इन सभी नामों की अपनी स्वतंत्र महत्ता एवं उपयोगिता है। जिस प्रकार किसी मकान या महल के चार खम्भों में से किसी एक खम्भे के कमजोर या असंतुलित हो जाने पर संपूर्ण मकान या महल का संतुलन बिगड़ जाता है, उसी प्रकार यदि चतुर्विध संघ में से कोई एक अंग अस्वस्थ होता है तो समस्त ढांचा प्रभावित हुए विना नहीं रह सकता। अतएव जैनधर्म में प्रत्येक घटक का अपना स्वतंत्र एवं महत्त्वपूर्ण स्थान
आज के भोगप्रधान, उत्सव एवं प्रदर्शन प्रिय भौतिकवादी युग में श्रावक-श्राविका के आचार की चर्चा समय की मांग है और समय की यह भी अपेक्षा है कि परंपरा प्राप्त शास्त्रों में वर्णित श्रावकाचार विषयक विधानों/ निर्देशों की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करके