Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
1
सामान, साधन, सामग्री आदि में भी अपनी सम्पत्ति का तृतीयांश वे लगाये रहते थे । वहाँ उपयोगिता, सुविधा तथा शान या प्रतिष्ठा का भाव भी था । दान, भोग और नाश-धन की इन तीनों गतियों से वे अभिज्ञ थे, इसलिए समुचित भोग में भी उनकी रूचि थी । तृतीयांश व्यापार में लगा रहता था । व्यापार में कदाचित् हानि भी हो जाए, सारी पूंजी चली जाए तो भी उनका प्रशस्त एवं प्रतिष्ठापन्न व्यवस्थाक्रम टूटता नहीं था। इसलिए उनके जीवन में एक निश्चिन्तता और अनाकुलता का भाव था । तभी यह सम्भव हो सका कि उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर के दर्शन और सान्निध्य का लाभ प्राप्त कर अपना जीवन भोग से त्याग की ओर मोड़ दिया ।
आत्मप्रेरणा से अनुप्राणित होकर व्यक्ति जब त्यागमय जीवन स्वीकार करता है तो उसे जैसे भोग में आनन्द आता था, त्याग में आनन्द आने लगता है और विशेषता यह है कि यह आनन्द पवित्र, स्वस्थ एवं श्रेयस्कर होता है । सहसा आश्चर्य होता है, आनन्द तथा दूसरे श्रमणोपासक के अत्यन्त समृति और सुखसुविधामय जीवन को एक ओर देखते हैं, दूसरी ओर यह देखते हैं, जब वे त्याग के पथ पर आगे बढ़ते हैं तो उधर इतने तन्मय हो जाते है कि भोग स्वयं छूटते जाते हैं । देह अस्थि-कंकाल बन जाता है, पर वे परम परितुष्ट और प्रहृष्ट रहते हैं । त्याग के रस की अनुभूति के बिना यह कभी सम्भव नहीं हो पाता ।
एक अद्भुत घटना : सत्य की गरिमा
आनन्द के जीवन की एक घटना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । तपश्चरण एवं साधना के फलस्वरूप अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आन्नद अवधिज्ञानी हो जाता है । भगवान् महावीर के प्रमुख अन्तेवासी गौतम से अवधिज्ञान की सीमा के सम्बन्ध में हुए वार्तालाप में एक विवादास्पद प्रसंग बन जाता है । भगवान् महावीर आनन्द के मन्तव्य को ठीक बतलाते हैं। गौतम आनन्द के पास आकर क्षमा-याचना करते हैं। बड़ा उद्बोधक प्रसंग यह है । आनन्द एक गृही साधक था । गौतम भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में सबसे मुख्य थे। पर, कितनी ऋजुता और अहंकार-शून्यता का भाव उनमें था । वे प्रसन्नतापूर्वक अपने अनुयायी- अपने उपासक से क्षमा मांगते हैं। जैनदर्शन का कितना ऊँचा आदर्श यह है, व्यक्ति बड़ा है। सत्य के प्रति हर किसी को अभिनत होना ही चाहिए। इससे फलित और निकलता है, साधना के मार्ग में एक गृही भी बहुत आगे बढ़ सकता है क्योंकि साधना के उत्कर्ष का आधार आत्मपरिणामों की विशुद्धता है । उसे जो जितना साध ले, वह उतना ही ऊर्ध्वगमन कर सकता 1
|
साधना की कसौटी
श्रेयांसि बहुविघ्नानि-श्रेयस्कर कार्यों में अनेक विघ्न आते ही है, अक्सर यह देखते हैं, पढ़ते हैं।
प्रस्तुत आगम के दस उपासकों में से छह के जीवन में उपसर्ग या विघ्न आये। उनमें चार अन्ततः विघ्नों से विचलित हुए पर तत्काल सम्हल गये । दो सर्वथा अविचल और अडोल रहे । उपसर्ग अनुकूल-प्रतिकूल या मोहक - ध्वंसक - दोनों प्रकार के ही होते हैं ।
दूसरे अध्ययन का प्रसंग है, श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में साधनारत था। एक देव ने उसे विचलित करने के लिए उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसके पुत्रों की नृशंस हत्या कर
[२३]