Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[१९
फटने से निकलते हुए रेशों जेसी कोमल, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण--मुलायम, सुरभित, सुन्दर, भुजमोचक, नीलम, भिंग नील, कज्जल प्रहृष्ट--सुपुष्ट भ्रमरवृन्द जैसे चमकीले काले, घने, घुघराले, छल्लेदार केश उनके मस्तक पर थे, जिस त्वचा पर उनके बाल उगे हुए थे, वह अनार के फूल तथा सोने के समान दीप्तिमय, लाल, निर्मल और चिकनी थी, उनका उत्तमांग-- मस्तक का ऊपरी भाग सघन, भरा हुआ और छत्राकार था। उनका ललाट निव्रण-फोड़े-फुन्सी आदि के घाव--चिह्न से रहित, समतल तथा सुन्दर एवं शुद्ध अर्द्ध चन्द्र के सदृश भव्य था, उनका मुख पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य था, उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत--समुचित आकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे, उनके कपोल मांसल और परिपुष्ट थे, उनकी भौंहे कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर-टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश-- पतली, काली एवं स्निग्ध थी, उनके नयन खिले हुए पुंडरीक- सफेद कमल के समान थे, उनकी आंखे पद्म--कमल की तरह विकसित धवल तथा पत्रल--बरौनी युक्त थी, उनकी नासिका गरूड़ की तरह--गरूड़ की चोंच की तरह लम्बी, सीधी
और उन्नत थी, संस्कारित या सुघटित मूंगे की पट्टी-जैसे या बिम्ब फल के सदृश उनके होठ थे, उनके दांतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से भी निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुंद के फूल, जलकण और कमलनाल के समान सफदे थी, दांत अखंड, परिपूर्ण, अस्फुटित--सुदृढ, टूटफूट रहित, अविरल--परस्पर सटे हुए, सुस्निग्ध--चिकने--आभामय सुजात--सुन्दराकार थे, अनेक दांत एक दन्त-श्रेणी की तरह प्रतीत होते थे, जिह्वा और तालु अग्नि में तपाये हुए और जल से धोये हुए स्वर्ण के समान लाल थे, उनकी दाढ़ी-मूंछ अवस्थित कभी नहीं बढ़ने वाली, सुविभक्त बहुत हलकीसी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, ठुड्डी मांसल--सुगठित, सुपुष्ट, प्रशस्त तथा चीते की तरह विपुल-- विस्तीर्ण थी, ग्रीवा-गर्दन-चार अंगुल प्रमाण--चार अंगुल चौड़ी तथा उत्तम शंख के समान त्रिबलियुक्त एवं उन्नत थी, उनके कन्धे प्रबल भैंसे, सूअर, सिंह, चीते, सांड के तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे, उनकी भुजाएं युग-गाड़ी के जुए अथवा यूप--यज्ञ स्तम्भ--खुंटे की तरह गोल और लम्बे, सुदृढ़, देखने में आनन्दप्रद, सुपुष्ट कलाइयों से युक्त, सुश्लिष्ट--सुसंगत, विशिष्ट, घन--ठोस, स्थिर, स्नायुओं से यथावत् रूप में सुबद्ध तथा नगर की अर्गला-- आगल के समान गोलाई लिए हुई थीं, इच्छित वस्तु प्राप्त करने के लिए नागराज के फैले हुए विशाल शरीर की तरह उनके दीर्घ बाहु थे, उनके पाणि--कलाई से नीचे के हाथ के भाग उन्नत, कोमल, मांसल तथा सुगठित थे, शुभ लक्षणों से युक्त थे, अंगुलियाँ मिलाने पर उनमें छिद्र दिखाई नहीं देते थे, उनके तल--हथेलियाँ ललाई लिए हए थीं, हाथों की अंगलियाँ पष्ट और सकोमल थीं. उनके नख तांबे की तरह कछ-कछ ललाई लिए हुए, पतले, उजले, रूचिर--देखने में रूचिकर,स्निग्ध, सुकोमल थे, उनकी हथेली चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त स्वस्तिक की शुभ रेखाएं थीं, उनका वक्षस्थल--सीना स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्जवल, प्रशस्त, समतल, उपचित--मांसल, विस्तीर्ण--चौड़ा, पृथुल--[विशाल] था, उस पर श्रीवत्स--स्वस्तिक का चिह्न था, देह की मांसलता या परिपुष्टता के कारण रीढ़ की हड्डी नहीं दिखाई देती थी, उनका शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान्, निर्मल, सुन्दर निरूपहत--रोग-दोषवर्जित था, उसमें उत्तम पुरूष के १००८ लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे, उनकी देह के पार्श्व भाग--