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द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव]
- [१०१ जेणेव पोसह-साला जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवे समणोवासयं एवं वयासी--हं भो! कामदेवा! समणोवासया! जाव (सीलाई वयाइं, वेरमणाइं, पच्चक्खाणाइं, पोसहोववासाइं न छड्डेसि,) न भंजेसि, तो ते अज्जेव अहं सरसरस्स कायं दुरुहामि दुरुहित्ता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं, वेढेमि, वेढिता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुट्टेमि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसटे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।
जब हस्तीरूपधारी देव श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं कर सका, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा। पीछे हट कर पोषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर विक्रियाजन्य हस्ति-रूप का त्याग किया। वैसा कर दिव्य, विकराल सर्प का रूप धारण किया।
वह सर्प उग्रविष, प्रचण्डविष, घोरविष और विशालकाय था। वह स्याही और मूस-धातु गलाने के पात्र जैसा काला था। उसके नेत्रों में विष और क्रोध भरा था। वह काजल के ढेर जैसा लगता था। उसकी आंखें लाल-लाल थी। उसकी दुहरी जीभ चंचल थी-बाहर लपलपा रही थी। कालेपन के कारण वह पृथ्वी (पृथ्वी रूपी नारी) की वेणी--चोटी-जैसी लगता था। वह अपना उत्कट-उग्र, स्फुट-देदीप्यमान, कुटिल--टेढ़ा, जटिल--मोटा, कर्कश--कठोर, विकट--भयंकर फन फैलाए हुए था। लुहार की धौंकनी की तरह वह फुकार कर रहा था। उसका प्रचण्ड क्रोध रोके नहीं रूकता था।
वह सर्परूपधारी देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया। आकर श्रमणोपासक कामदेव से बोला--अरे--कामदेव! यदि तुम शील, व्रत (विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हों,) भंग नहीं करते हो, तो मैं अभी सर्राट करता हुआ तुम्हारे शरीर पर चढूंगा। चढ़ कर पिछले भाग से--पूंछ की ओर से तुम्हारे गले में तीन लपेट लगाऊंगा। लपेट लगाकर अपने तीखे, जहरीलें दातों से तुम्हारी छाती पर डंक मारूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीडित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे--मर जाओगे।
१०८. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्प-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ। सो वि दोच्चंपि तच्चपि भणइ। कामदेवो वि जाव विहरइ।
सर्परूपधारी उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी कामदेव निर्भीकता से उपासनारत रहा। देव ने दूसरी बार फिर तीसरी बार वैसा ही कहा, पर कामदेव पूर्ववत् उपासना में लगा रहा।
१०९. तए णं से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता आसुरत्ते ४ कामदेवस्स सरसरस्स कायं दुरूहइ, दुरूहित्ता पच्छिम-भाएणं तिक्खुत्तो गीवं १. देखें सूत्र-संख्या ९८। २. देखें सूत्र-संख्या ९८॥ ३. देखें सूत्र-संख्या ९७।