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द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव]
[१०९ तुम्हारे सामने प्रकट हुआ था। उस देव ने एक विकराल पिशाच का रूप धारण किया। वैसा कर, अत्यन्त क्रुद्ध हो, उसने (नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फूल जैसी गहरी नीली तेज धार वाली) तलवार निकाल कर तुम से कहा-कामदेव! यदि तम अपने शील आदि' व्रत भग्न नहीं करोगे तो जीवन से पृथक् कर दिए जाओगे। उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी तुम निर्भय भाव से उपासनारत रहे।
तीनों उपसर्ग विस्तृत वर्णन सहित, देव के वापस लौट जाने तक पूर्वोक्त रूप में यहाँ कह लेने चाहिए।
भगवान् महावीर ने कहा-कामदेव क्या यह ठीक है? कामदेव बोला-भगवन् ! ऐसा ही हुआ।
११७. अज्जो इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-जइ ताव, अजो! समणोवासगा, गिहिणोगिहमज्झावसंता दिव्यमाणुस-तिरिक्ख-जोणिए उवसग्गे सम्मं सहति जाव (खमंति, तितिक्खंति) अहियासेंति, सक्का पुणाई, अज्जो! समणेहिं निग्गंथेहिं दुवालसंग-गणि-पिङग अहिज्जमाणेहिं दिव्वमाणुस-तिरिक्ख-जोणिए (उक्सग्गे) सम्मं सहित्तए जाब (खमित्तए, तितिक्खितए) अहियासित्तए।
__ भगवान् महावीर ने बहुत से श्रमणो और श्रमणियों को संबोधित कर कहा--आर्यो! यदि श्रमणोपासक 'गृही घर में रहते हुए भी देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत-पशु पक्षीकृत उपसर्गों को भली भाँति सहन करते है (क्षमा एवं तितिक्षा भाव से झेलते हैं) तो आर्यों! द्वादशांग-रूप गणिपिटक काआचार आदि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यञ्चकृत उपसर्गों को सहन करना (क्षमा एवं तितिक्षा-भाव से झेलना) शक्य है ही।
११८. तओ ते बहवे समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्य भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमट्ठ विणएणं पडिसुणेति।
श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन उन बहु-संख्यक साधु-साध्वियों ने 'ऐसा ही है' भगवन् ! यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया।
११९. तए णं कामदेवे समणोवासए हट्ठ जाव' समणं भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छइ, अट्ठमादियइ। समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए, तामेव दिसं पडिगए।
श्रमणोपासक कामदेव अत्यन्त प्रसन्न हुआ, उसने श्रमण भगवान् महावीर से प्रश्न पूछे अर्थ-- समाधान प्राप्त किया। श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदन-नमस्कार कर, जिस दिशा से वह १. देखें सूत्र-संख्या १२। .