________________
[१९७
आठवां अध्ययन : महाशतक ] रेवती का दुःखमय अन्त
२५६. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासी-रूटे णं ममं महासयए समणोवासए हीणे णं ममं महासयए समणोवासए, अवज्झाया णं अहं महासयएणं समणोवासएणं, न नजइ णं, अहं केण वि कुमारेणं मारिजिस्सामि त्ति कटु भीया, तत्था, तसिया, उव्विग्गा, संजायभया सणियं २ पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय-जाव (मण-संकप्पा, चिंता-सोग-सागर-संपविट्ठा, करयल-पल्हत्थमुहा, अट्ट-ज्झाणोवगया, भूमिगय-दिट्ठिया) झियाइ।
श्रमणोपासक महाशतक के यों कहने पर रेवती अपने आप से कहने लगी-श्रमणोपासक महाशतक मुझ पर रूष्ट हो गया, मेरे प्रति उसमें दुर्भावना उत्पन्न हो गई है, वह मेरा बुरा चाहता है, न मालूम मैं किस बुरी मौत से मार डाली जाऊं। यों सोचकर वह भयभीत, त्रस्त, व्यथित, उद्विग्न होकर , डरती-डरती धीरे-धीरे वहाँ से निकली, घर आई। उसके मन में उदासी छा गई, (वह चिन्ता और शोक के सागर में डूब गई, हथेली पर मुंह रखे, आर्तध्यान में खोई हुई, भूमि पर दृष्टि गड़ाए) व्याकुल होकर सोच में पड़ गई।
२५७. तए णं सा रेवई गाहावइणी अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्टदुहट्ठ-वसट्टा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुपच्चुए नरए चउरासीइ-वास-सहस्स-ट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना।
___ तत्पश्चात् रेवती सात रात के भीतर अलसक रोग से पीड़ित हो गई। व्यथित, दु:खित तथा विवश होती हुई वह अपना आयुष्य पूरा कर प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। गौतम द्वारा भगवान का प्रेरणा-सन्देश
२५८. तेणं कालेणंतेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव' परिसा पडिगया।
उस समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह में पधारे । समवसरण हुआ। परिषद् जुड़ी, धर्मदेशना सुन कर लौट गई।
२५९. गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! इहेव रायगिहे नयरे ममं अंतेवासी महासयए नाम समणोवासए पोसह-सालाए अपच्छिम-मारणंतियसंलेहणाए झूसिय-सरीरे, भत्तपाण-पडियाइक्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ।
१. देखें सूत्र-संख्या ११।