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आठवां अध्ययन : महाशतक ]
[१९९ प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी।)
गौतम! सत्य, तत्त्वरूप-यथार्थ या उपचारहित, तथ्य-अतिशयोक्ति या न्यूनोक्तिरहित, सद्भूतजिनमें कही हुई बात सर्वथा विद्यमान हो, ऐसे वचन भी यदि अनिष्ट-जो इष्ट न हों अकान्त-जो सुनने में अकमनीय या असन्दर हो, अप्रिय-जिन्हें सनने से मन में अप्रीति हो, अमनोज्ञ-जिन्हें मन न बोलना चाहे, न सुनना चाहे, अमन:आप-जिन्हें मन न सोचना चाहे न स्वीकार करना चाहे-ऐसे हों तो अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए उन्हें बोलना कल्पनीय-धर्मविहित नहीं है। इसलिए देवानुप्रिय! तुम श्रमणोपासक महाशतक के पास जाओ और उसे कहो कि अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, (तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत) वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन प्रतिकूल हों तो बोलना कल्पनीय नहीं है । देवानुप्रिय! तुमने रेवती को सत्य किन्तु अनिष्ट वचन कहे। इसलिए तुम इस स्थान की-धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो, यथोचित प्रायश्चित्त स्वीकार करो।
२६२. तए णं से भगवं गोयमे समणस्य भगवओ महावीरस्स 'तहत्ति' एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मझंमज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे, जेणेव महासयए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ।
भगवान गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन 'आप ठीक फरमाते है ' यों कह कर विनयपूर्वक सुना। वे वहां से चले। राजगृह नगर के बीच से गुजरे, श्रमणोपासक महाशतक के घर पहुंचे, उसके पास गए।
२६३. तए णं से महासयए समणोवासए भगवं गोयम एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट जाव' हियए भगवं गोयसं वंदइ नमसइ।
___ श्रमणोपासक महाशतक ने जब भगवान् गौतम को आते देखा तो वह हर्षित एवं प्रसन्न हुआ। उन्हें वंदन-नमस्कार किया।
२६४. तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खए भासइ, पण्णवेइ, नो खलु कप्पइ, देवाणुप्पिया! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसियस्स भत्त-पाण-पडियाइ-क्खियस्स परो संतेहिं , तच्चेहिं , तहिएहिं, सब्भूएहिं, अणिटे हिं, अकंतेहिं, अप्पिएहिं, अमणुण्णेहिं, अमणामेहिं वायरणेहिं ) वागरित्तए तुमे णं देवाणुप्पिया!
१. देखें सूत्र-संख्या १२