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[उपासकदशांगसूत्र २७१. तए णं से नंदिणीपिया समणोवासए जाव' विहरइ।
नन्दिनीपिता श्रावक-धर्म स्वीकार कर श्रमणोपासक हो गया, धर्माराधनापूर्वक जीवन बिताने लगा। साधनामय जीवन : अवसान
२७२. तए णं तस्स नंदिणीपियस्स समणोवासयस्स बहूहिं सोलव्वय-गुण जाव' भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वइक्कंताई। तहेव जेठं पुत्तं ठवेइ। धम्म-पण्णतिं। वीसं वासाइं परियागं। नाणत्तं अरूणगवे विमाणे उववाओ महाविदेहे वासे सिज्झिहिए।
निक्खेवओ ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं नवमं अज्झयणं समत्तं ॥ तदन्तर श्रमणोपासक नन्दिनीपिता को अनेक प्रकार से अणुव्रत, गुणव्रत आदि की आराधना द्वारा आत्मभावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। उसने आनन्द आदि की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व सौंपा। स्वयं धर्मोपासना में निरत रहने लगा।
नन्दिनीपिता ने बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया। आनन्द आदि से इतना अन्तर है-देह-त्याग कर वह अरूणगव विमान में उत्पन्न हुआ। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा।
"निक्षेप "सातवें अंग उपासकदशा का नौवां अध्ययन समाप्त"
१. देखें सूत्र-संख्या ६४ २. देखें सूत्र-संख्या १२२ ३. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं नवमस्स अज्झयणस्स अयमटठे पण्णत्तेत्ति बेमि। ४. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने नौवें अध्ययन का यही अर्थ-भाव
कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है।