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आठवां अध्ययन : महाशतक ]
[१९५ उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत तक क्षेत्र तथा अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुपाच्युतनामक नरक तक जानने देखने लगा। रेवती द्वारा पुनः असफल कुचेष्टा
२५४. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ मत्त जाव(लुलिया, विइण्णकेसी) उत्तरिजयं विकड्डमाणी २ जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासययं तहेव भणइ जाव' दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो तहेव।
तत्पश्चात् एक दिन महाशतक गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त (लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे) बार-बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई पोषधशाला में, जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई। आकर महाशतक से पहले की तरह बोली। (तुम मेरे साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषयसुख नहीं भोगते, देवानुप्रिय! तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या मिलेगा?) उसने दूसरी बार, तीसरी बार, फिर वैसा ही कहा। महाशतक द्वारा रेवती का दुर्गतिमय भविष्य-कथन
२५५. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि, तच्चपि एवं वुत्ते समाणे आसुरत्ते ४ ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी-हं भो रेवई! अपत्थिय-पत्थिए ४ एवं खलु तुमं अंतो सत्त-रत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइ-वाससहस्सट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववजिहिसि।
अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान द्वारा जानकर उसने अपनी पत्नी रेवती से कहा-मौत को चाहने वाली रेवती! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर आर्त्त-व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई आयु-काल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मरकर अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्यवाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी।
प्रस्तुत सूत्र में अलसक रोग का उल्लेख हुआ है, जिससे पीड़ित होकर अत्यन्त कष्ट के साथ रेवती का मरण हुआ।
अलसक आमाशय तथा उदर सम्बन्धी रोगों में भीषण रोग है। अष्टांगहृदय में मात्राशितीय अध्याय में इसका वर्णन है । वहां लिखा है--
"दुर्बल, मन्द अग्निवाले, मल-मुत्र आदि का वेग रोकने वाले व्यक्ति का वायु विमार्गगामी हो १. देखें सूत्र-संख्या २४६ ।