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[उपासकदशांगसूत्र जाता है, वह पित्त और कफ को भी बिगाड़ देता है । वायु विकृत हो जाने से खाया हुआ अन्न आमाशय के भीतर ही कफ से रूद्ध हो कर अटक जाता हैं, अलसीभूत-आलस्ययुक्त-गतिशून्य हो जाता है, जिससे शल्य चुभने जैसी भयानक पीड़ा उठती है, तीव्र, दुःसह शूल उत्पन्न हो जाते हैं , वमन और शौच अवरूद्ध रहते हैं, जिससे विकृत अन्न बाहर नहीं निकल पाता। अर्थात् आमाशय में कफरूद्ध अन्नपिण्ड जाम हो जाता है । उसे अलस या अलसक रोग कहा जाता है।''१
उसी प्रसंग में वहां दण्डकालसक की चर्चा है जो अलसक का भीषणतम रूप है, लिखा है--
"अत्यन्त दूषित या विकृत हुए दोष, दूषित आम--कच्चे रस से बंधकर देह के स्रोतों को रोक देते हैं, तिर्यगामी हो जाते हैं, सारे शरीर को दंड की तरह स्तंभित बना देते हैं --देह का फैलना-सिकुड़ना बन्द हो जाता है उसे दंडकालसक कहा जाता है । वह असाध्य है, रोगी को शीघ्र ही समाप्त कर देता है।"२
माधवनिदान में भी अजीर्ण निदान के प्रसंग में अलसक की चर्चा है। वहां लिखा है
"जिस रोग में कुक्षि या आमशय बंधा सा रहे अर्थात् आफरा आ जाय, खिंचावट सी बनी रहे, इतनी पीड़ा हो कि आदमी कराहने लगे, पवन का वेग नीचे की ओर न चल कर ऊपर अमाशय कीओर दौड़े, शौच व अपानवायु बिलकुल रूक जाय, प्यास लगे, डकारें आएं, उसे अलसक कहते है "३
अष्टांगहृदय तथा माधवनिदान के बताए लक्षणों से स्पष्ट है कि अलसक बड़ा कष्टकर रोग है।
विशेषाद् दुर्बलस्याऽल्पवढे वेगविधारिणः। पीडितं मारूतेनान्नं श्लेष्माणा रुद्धमन्तरा ॥ अलसं क्षोभित दोषैः शल्यत्वेनैव संस्थितम्। शूलादीन्कुरूते तीव्राश्छद्यतीसारवर्जितान् ॥ सोऽलसः
दुर्बलत्वादियुक्तस्य यन्मारूतेन विशेषादन्नं पीडितमन्तराऽऽमाशयमध्य एवं श्लेष्मणा रुद्धमलसीभूतं, तथा दोषैः क्षोभितमाकुलितमत एवाऽतिपीडाकारित्वाच्छल्यरूपत एवं स्थितं, तीव्रान् दुःसहान् शूलादीन् छादिवर्जितान् कुरूते। छर्घतीसाराभ्यां विसूचिकोक्ता । सोऽलससंज्ञो रोगः। दुर्बलो ह्यानुपचितधातुः, स न कदाचिदाहारं सोढुं शक्तः अल्पाग्नेश्चाहारं सम्यङ् न जीर्यति। यतो वेगधारणशीलस्य प्रतिहतो वायुर्विमार्गगः पित्तकफावपि विमार्गगौ कुरूत इत्येतद्विशेषेण निर्देशः।
__ अष्टांगहृदय ७.१०, ११ टीकासहित २. ...अत्यर्थ दुष्टास्तु दोषा दुष्टाऽऽ मबद्धखाः। यान्तस्तिर्यक्तनुं सर्वां दण्डवत्स्तम्भयन्ति चेत् ॥
__ अष्टाङ्गहृदय ८. १२ ३. कुक्षिराहन्यतेऽत्यर्थं प्रताम्येत् परिक जति।
निरूद्धो मारूतश्चैव कु क्षावुपरि धावति ॥ वातव) निरोधश्च यस्यात्यर्थ भवेदपि। तस्यालसकमाचष्टे तृष्णोद्गारौ च यस्स तु ॥
माधवनिदान, अजीर्ण निदान १७, १८