Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 228
________________ [१८७ आठवां अध्ययन : महाशतक ] भाजन, कांस्य-पात्र तथा चौसठ पल का होने से चतुःषष्टिपल भी कहा जाता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि २५६ तोले या ४ सेर तौल की सामग्री जिस पात्र में समा सकती थी. उसको कांस्य या कांस्यपात्र कहा जाता था। - कांस्य या कांस्यपात्र का यह एक मात्र माप नहीं था। ऐसा अनुमान है कि कांस्यपात्र भी छोटेबड़े कई प्रकार के काम में लिए जाते थे। इस सूत्र में जिस कांस्य-पात्र की चर्चा है, उसका माप यहां वर्णित भावप्रकाश के कांस्यपात्र में बड़ा था। इसी अध्याय के २३५ वें सूत्र में श्रमणोपासक महाशतक अपने दैनन्दिन लेन-देन के सम्बन्ध में एक मर्यादा करता है, जिसके अनुसार वह एक दिन में दो द्रोणपरिमाण कांस्यपरिमित स्वर्ण-मुद्राओं से अधिक का लेन-देन में उपयोग न करने को संकल्प-बद्ध होता है । इसे कुछ स्पष्ट रूप में समझ लें। ऊपर आढक तक के मान की चर्चा आई है। भावप्रकाश में आगे बताया गया है कि चार आढक का एक द्रोण होता है । उसको कलश, नल्वण, अर्मण,उन्मान, घट तथा राशि भी कहा जाता है। दो द्रोण का एक शूर्प होता है, उसको कुंभ भी कहा जाता है तथा ६४ शराव का होने से चतुःषष्टि शरावक भी कहा जाता है। . इसका आशय यह हुआ, जिस पात्र में दो द्रोण अर्थात् आठ आढक या ३२ प्रस्थ अर्थात् ६४ १. चरकस्य मतं वैद्यै राद्यै र्यस्मान्मतं ततः। विहाय सर्वमानानि मागधं मानमुच्यते ॥ त्रसरे णुर्बुधै : प्रोक्त स्त्रिशता परमाणुभिः। त्रसरे णुस्तू पर्यायनामा वंशी निगद्यते ।। जालान्तरगतै : सूर्यकरैर्वशी विलोक्यते । षड्वंशीभिर्मरीचिः स्यात्ताभिः षड् भिश्च राजिका ॥ तिसृभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधैः। यवोऽष्ट सर्षपैः प्रोक्तो गुञ्जास्यात्तच्चतुष्ट यम् ॥ षड् भिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माषको हे मधानको । मापैश्चतुर्भिः शाणः स्याद्धरणः स निगद्यते ॥ टङ्कः स एव कथितस्तद्वयं कोल उच्यते । क्षुद्रको वटकश्चैव द्रङ्क्षणः स निगद्यते ।। कोलद्वयन्तु कर्षः स्यात्स प्रोक्तः पाणिमानिका । अक्षः पिचुः पाणितलं किञ्चित्पाणिश्च तिन्दुकम् ॥ विडालपदकं चैव तथा षोड शिका मता। कर मध्यो हंसपदं सुवर्ण क वलग्रह ः॥ उदुम्बरञ्च पर्यायैः कर्ष मेव निगद्यते । स्यात्कर्षाभ्यामर्द्ध पलं शुक्तिरष्ट मिका तथा ॥ शुक्तिभ्याञ्च पलं ज्ञेयं मुष्टि राम्रं चतुर्थिका। प्रकुञ्चः षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते ॥ पलाभ्यां प्रसूति या प्रसृतञ्च निगद्यते । प्रसृतिभ्यामञ्जलिः स्यात्कु डवोऽर्द्धशरावकः॥ अष्ट मानञ्च स ज्ञेयः कुडवाभ्याञ्च मानिका। शरावोऽष्ट पलं तद्वण्जे यमत्र विचक्षणैः॥ शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुः प्रस्थस्तथाऽऽ ढकः। भाजनं कांस्यपात्रंच चतु: षष्टि पलश्च सः॥ --भावप्रकाश, पूर्वखंड द्वितीय भाग, मानपरिभाषाप्रकरण २-४ चतुर्भिराढकोणः कलशो नल्वणोऽर्मण। उन्मानञ्च घटो राशिोणपर्यायसंज्ञितः ॥ शूर्पाभ्याञ्च भवेद् द्रोणी वाहो गोणी च सा स्मृता ॥ द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टि शरावकः। --भावप्रकाश, पूर्वखण्ड, द्वितीय भाग, मानपरिभाषा प्रकरण १५, १६

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