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[उपासकदशांगसूत्र २३९. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ, उहवेत्ता तासिं वालसण्हं सवत्तीणं कोल-घरियं एगमेगं हिरण्ण-कोडिं, एममेगं वयं सयमेव पडिवजइ, पडिवजित्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाइं भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ।
एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती ने अनुकूल अवसर पाकर अपनी बारह सौतों में से छह का शस्त्र-प्रयोग द्वारा और छह को विष-प्रयोग द्वारा मार डाला। यों अपनी बाहर सौतों को मार कर अपनी पीहर से प्राप्त एक-एक गोकुल स्वयं प्राप्त कर लिया और वह श्रमणोपासक महाशतक के साथ विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। रेवती की मांस-मद्य-लोलुपता
२४०. तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-लोलुया, मंसेसु मुच्छिया, गिद्धा, गढिया, अज्झोव-वन्ना बहु-विहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च मजं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणी, विसाएमाणी, परिभाएमाणी, परिभुंजेमाणी विहरइ।
गाथापति की पत्नी मांस-भक्षण में लोलुप, आसक्त, क्षुब्ध तथा तत्पर रहती। वह लोहे की सलाखों पर सेके हुए , घी आदि में तले हुए तथा आग पर भूने हुए बहुत प्रकार के मांस एवं सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु व प्रसन्न नामक मदिराओं का आस्वादन करती, मजा लेती, छक कर सेवन करती। विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु तथा प्रसन्न नामक मदिराओं का उल्लेख है, जिन्हें रेवती प्रयोग में लेती थी। आयुर्वेद के ग्रन्थों में आसवों तथा अरिष्टों के साथ-साथ मद्यों का भी वर्णन हैं। वैसे आसव एवं अरिष्ट में भी कुछ मात्रा में मद्यांश होता हैं , पर उनका मादक द्रव्यों या मद्यों में समावेश नहीं किया जाता । मदिरा की भिन्न स्थिति है। उसमें मादक अंश अधिक मात्रा में होता है, जिसके कारण मदिरासेवी मनुष्य उन्मत्त, विवेकभ्रष्ट और पतित हो जाता है।
आयुर्वेद में मद्य को आसवं एवं अरिष्ट के साथ लिए जाने का मुख्य कारण उनकी निर्माणविधि की लगभग सदृशता है । वनौषधि, फल, मूल, सार, पुष्प, कांड, पत्र, त्वचा आदि को कूट-पीस कर जल के साथ मिला कर उनका घोल तैयार कर घड़े या दूसरे बर्तन में संधित कर-कपड़मिट्टी से अच्छी तरह बन्द कर, जमीन में गाड़ दिया जाता है या धूप में रक्खा जाता है। वैसे एक महीने का विधान हैं, पर कुछ ही दिनों में भीतर ही भीतर उकट कर उस घोल में विलक्षण गन्ध, रस, प्रभाव उत्पन्न हो जाता है । वह आसव का रूप ले लेता है । वनौषधि आदि का जल के साथ क्वाथ तैयार कर, चतुर्थांश जलीय भाग रहने पर, उसे बर्तन में संचित कर जमीन में गाड़ा जाता है या धुप में रखा जाता है। यथासमय संस्कार-निष्पन्न होकर वह अरिष्ट बन जाता है । जमीन में गाड़े हुए या धुप में दिए हुए द्रव से