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[उपासकदशांगसूत्र करने योग्य, कल्याणमय, मंगलमय, इष्ट देव स्वरूप अथवा दिव्य तेज तथा शक्तियुक्त, ज्ञानस्वरूप) पर्युपासनीय-उपासना करने योग्य, तथ्य कर्म-सम्पदा-संप्रयुक्त-सत्कर्म रूप-सम्पत्ति से युक्त भगवान् पधारेंगे। इसलिए तुम उन्हें वन्दन करना (नमस्कार, सत्कार तथा सम्मान करना। वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं। उनकी पर्युपासना करना), प्रातिहारिक-ऐसी वस्तुएं जिन्हें श्रमण उपयोग में लेकर वापस कर देते हैं, पीठ--पाट, फलक-बाजोट, शय्या-ठहरने का स्थान, संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि हेतु उन्हें आमंत्रित करना । यों दूसरी बार व तीसरी बार कह कर जिस दिशा से प्रकट हुआ था, वह देव उसी दिशा की ओर लौट गया। विवेचना
प्रस्तुत सूत्र में आए 'महामाहण' शब्द व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि ने वृत्ति में लिखा है-जो व्यक्ति यों निश्चय करता है, मैं किसी को नहीं मारूं, अर्थात जो मन, वचन एवं काय द्वारा सूक्ष्म तथा स्थूल समस्त जीवों की हिंसा से निवृत्त हो जाता है तथा किसी की हिंसा मत करों यों दूसरों को उपदेश करता है, वह माहन कहा जाता है। ऐसा पुरूष महान् होता है, इसलिए वह महामाहन है, अर्थात् महान् अहिंसक है।
अन्य आगमों में भी जहां महामाण शब्द आया है, इसी रूप में व्याख्या की गई है। इसकी व्याख्या का एक रूप और भी है । प्राकृत में 'ब्राह्मण' के लिए बम्हण तथा बम्भण के साथ-साथ माहण शब्द भी है । इसके अनुसार महामाण का अर्थ महान् ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण शब्द भारतीय साहित्य में गुण-निष्पन्नता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व लिए हुए है। ब्राह्मण में एक ऐसे व्यक्तित्व की कल्पना है, जो पवित्रता, सात्त्विकता, सदाचार, तितिक्षा, तप आदि सद्गुणों के समवाय का प्रतीक हो। शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ ज्ञानी है । व्याकरण में कृदन्त के प्रकरण में अण् प्रत्यय के योग से इसकी सिद्धि होती है । उसके अनुसार इसकी व्युत्पत्ति-जो ब्रह्म-वेद या शुद्ध चैतन्य को जानता है अथवा उसका अध्ययन करता है, वह ब्राह्मण है। गुणात्मक दृष्टि से वेद, जो विद धात से बना है. उत्कष्ट ज्ञान का प्रतीक है। यों ब्राह्मण एक उच्च ज्ञानी और चरित्रनिष्ठ व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत हुआ है।
___ जन्मगत जातीय व्यवस्था को एक बार हम छोड़ देते हैं, वह तो एक सामाजिक क्रम था। वस्तुतः इस उच्च और प्रशस्त अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द को केवल वैदिक वाङ्मय में ही नहीं, जैन और वाङ्मय में भी स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है
ब्राह्मण वंश में उत्पन्न जयघोष मुनि एक बार अपने जनपद-विहार के बीच वाराणसी आए। नगर के बाहर मनोरम नामक उद्यान में रूके। उस समय विजयघोष नामक एक वेदवेत्ता ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। जयघोष मुनि एक मास की तपस्या के पारणे हेतु भिक्षा के लिए विजयघोष के यहां पहुंचे। विजयघोष ने कहा-यहाँ बना भोजन तो ब्राह्मण को देने के लिए है। इस पर जयघोष मुनि ने उससे कहाविजयघोष! तुम ब्राह्मणत्व का शुद्ध स्वरूप नहीं जानते । जरा सुनो, मैं बतलाता हूं, ब्राह्मण कौन होता है१. कर्मण्यण् । पाणिनीय अष्टाध्यायी । ३ । २ । १ । २. ब्रह्म-वेदं, शुद्धं चैतन्यं वा वेत्ति अधीते वा इति ब्राह्मणः।