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[उपासकदशांगसूत्र आजीविय-समयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिद्धिं पडिवने। तं गच्छामि णं सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं समणाणं निग्गंथाणं दिद्धिं वामेत्ता पुणरवि आजीविय-दिढेि गेण्हावित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आजीविय-संघसंपरिवुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे, जेणेव आजीवियसभा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भंडग-निक्खेबं करेइ, करेत्ता कइवएहिं आजीविएहिं सद्धिं जेणेव सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ।
कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सुना कि सकडालपुत्र आजीविक-सिद्धान्त को छोड़ कर श्रमण-निग्रन्थों की दृष्टि-दर्शन या मान्यता स्वीकार कर चुका है, तब उसने विचार किया कि मैं आजीविकोपासक सकडालपुत्र के पास जाऊँ और श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता छुड़ाकर उसे फिर आजीविक-सिद्धान्त ग्रहण करवाऊं। यों विचार कर वह आजीविक संघ के साथ पोलासपुर नगर में आया, आजीविक-सभा में पहुंचा, वहां अपने पात्र, उपकरण रखे कतिपय आजीविकों के साथ जहां सकडालपुत्र था, वहां गया। सकडालपुत्र द्वारा उपेक्षा
२१५. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एजमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परिजाणाइ, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ।
श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक को आते हुए देखा। देखकर न उसे आदर दिया और न परिचित जैसा व्यवहार ही किया। आदर न करता हुआ, परिचित का सा व्यवहार न करता हुआ, अर्थात् उपेक्षाभावपूर्वक वह चुपचाप बैठा रहा। गोशालक द्वारा भगवान् का गुण-कीर्तन
२१६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइजमाणे अपरिजाणिज्जमाणे पीढ-फलग-सिज्जा-संथारट्ठयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-आगए णं, देवाणुप्पिया! इहं महामाहणे?
श्रमणोपासक सकडालपुत्र से आदर न प्राप्त कर, उसका उपेक्षा भाव देख मंखलिपुत्र गोशालक पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक आदि प्राप्त करने हेतु श्रमण भगवान् महावीर का गुण-कीर्तन करता हुआ श्रमणोपासक सकडालपुत्र से बोला--देवानुप्रिय! क्या यहां महामाहन आए थे?
२१७. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-के णं, देवाणुप्पिया! महामाहणे?
श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा-देवानुप्रिय! कौन महामाहन? (आपका किससे अभिप्राय है?)
२१८. तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-समणे