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[उपासकदशांगसूत्र । उस देव ने एक बड़ी, नीली तलवार निकाल कर श्रमणोपासक सकडालपुत्र से उसी प्रकार कहा, वैसा ही उपसर्ग किया, जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था। सकडालपुत्र के बड़े, मंझले व छोटे बेटे की हत्या की, उनका मांस व रक्त उस पर छिड़का। केवल यही अन्तर था कि यहां देव ने एक-एक पुत्र के नौ-नौ मांस खंड किए।
२२६. तए ण से सद्दालपुत्ते समणोवासए अभीए जाव' विहरइ। ऐसा होने पर भी श्रमणोपासक सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा।
२२७. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता चउत्थं पि सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! सद्दालपुत्ता! समणोवासया! अपत्थियपत्थिया! जाव न भंजेसि तओ जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्म-सहाइया, धम्म-विइजिया, धम्माणुरागरत्ता, सम-सुह-दुक्ख-सहाइया, तं ते साओ गिहाओ नीणेमि नीणेत्ता तब अग्गओ घाएमि, घाएत्ता नव मंस-सोल्लए करेमि, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अहहेमि, अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट जाव (वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि।
उस देव ने जब श्रमणोपासक सकडालपुत्र को निर्भीक देखा, तो चौथी बार उसको कहा-मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक सकडालपुत्र! यदि तम अपना व्रत नहीं तोड़ते हो तो तुम्हारी धर्मसहायिका-धार्मिक कार्यों में सहयोग करने वाली, धर्मवैद्या जीवन में शिथिलता या दोष आने पर प्रेरणा द्वारा धार्मिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाली, अथवा धर्मद्वितीया-धर्म की संगिनी-साथिन, धर्मानुरागरक्ताधर्म के अनुराग में रंगी हुई, समसुखदुःख-सहायिका-तुम्हारे सुख और दुःख में समान रूप से हाथ बंटाने वाली पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आऊंगा, लाकर तुम्हारे आगे उसकी हत्या करूंगा, नौ मांसखंड करूंगा, उबलते पानी से भरी कढाही में खौलाऊंगा, खौलाकर उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचूगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होकर (असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगें। विवेचन
इस सूत्र में अग्निमित्रा का एक विशेषण 'धम्मविइज्जिया' है, जिसका संस्कृतरूप 'धर्मवैद्या' भी है। भारतीय साहित्य का अपनी कोटि का यह अनुपम विशेषण है, सम्भवतः किन्हीं अन्यों द्वारा अप्रयुक्त भी। दैहिक जीवन में जैसे आधि, व्याधि, वेदना, पीड़ा, रोग आदि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धार्मिक जीवन में भी अस्वस्थता, रूग्णता, पीड़ा आ सकती है। धर्म के प्रति उत्साह में शिथिलता आना रूग्णता है, कुंठा आना अस्वस्थता है, धर्म की बात अप्रिय लगना पीडा है। शरीर के रोगों को मिटाने के १. देखें सूत्र-संख्या ८९ २. देखें सूत्र-संख्या ९७ ३. देखें सूत्र-संख्या १०७