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आठवां अध्ययन सार : संक्षेप
___ भगवान् महावीर के समय में राजगृह उत्तर भारत का सुप्रसिद्ध नगर था। जैन वाङ्मय में बहुचर्चित राजा श्रेणिक, जो बौद्ध-साहित्य में बिम्बिसार नाम से प्रसिद्ध है, वहां का शासक था। राजगृह में महाशतक नाम गाथापति निवास करता था। धन, सम्पत्ति, वैभव, प्रभाव, मान-सम्मान आदि में नगर में उसका बहुत ऊंचा स्थान था। आठ करोड़ कांस्य-पात्र परिमित स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में उसके निधान में थी, उतनी ही स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं और उतनी ही घर के वैभव-साजसामान और उपकरणों में लगी थीं। पिछले सात अध्ययनों में श्रमणोपासको का साम्पत्तिक विस्तार मुद्राओं की संख्या के रूप में आया है, महाशतक का साम्पत्तिक विस्तार स्वर्ण-मुद्राओं से भरे हुए कांस्य-पात्रों की गणना के रूप में वर्णित हुआ है। कांस्य एक मापने का पात्र था। जिनके पास विपुल सम्पत्ति होती-इतनी होती कि मुद्राएं गिनने में भी श्रम माना जाता, वहां मुद्राओं की गिनती न कर मुद्राओं से भरे पात्रों की गिनती की जाती। महाशतक ऐसी ही विपुल, विशाल सम्पत्ति का स्वामी था। उसके यहाँ दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल थे।
देश में बहु-विवाह की प्रथा भी बड़े और सम्पन्न लोगों में प्रचलित थी। सांसारिक विषयसुख के साथ-साथ संभवतः उसमें बड़प्पन के प्रदर्शन का भी भाव रहा हो । महाशतक के तेरह पत्नियां थीं, जिनमें रेवती प्रमुख थी। महाशतक की पत्नियां भी बड़े घरों की थीं। रेवती को उसके पीहर से आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं और दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल-व्यक्तिगत सम्पत्ति-प्रीतिदान के रूप में प्राप्त थी। शेष बारह पत्नियों को अपने-अपने पीहर से एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राएं और दसदस हजार गायों का एक-एक गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में प्राप्त था। ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों बड़े लोग अपनी पुत्रियों को विशेष रूप में ऐसी संपत्ति देते थे, जो तब की सामाजिक परम्परा के अनुसार उनकी पुत्रियों के अपने अधिकार में रहती। संभव है, वह सम्पत्ति तथा गोकुल आदि उन पुत्रियों के पीहर में ही रखे रहते, जहां उनकी और वृद्धि होती रहती। इससे उन बड़े घर की पुत्रियों का अपने ससुराल में प्रभाव और रौब भी रहता। आर्थिक दृष्टि से वे स्वावलम्बी भी होतीं।
___ संयोगवश, श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह में पदार्पण हुआ, उनके दर्शन एवं उपदेशश्रवण के लिए परिषद् जुड़ी। महाशतक इतना वैभवशाली और सांसारिक दृष्टि से अत्यन्त सुखी था, पर वह वैभव एवं सुख-विलास में खोया नहीं था। अन्य लोगों की तरह वह भी भगवान् महावीर के सान्निध्य में पहुंचा। उपदेश सुना। आत्म-प्रेरणा जागी। आनन्द की तरह उसने भी श्रावक-व्रत स्वीकार किये। परिग्रह के रूप में आठ-आठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं की निधान आदि में रखने की मर्यादा की। गोधन को आठ गोकुलों तक सीमित रखने को संकल्प-बद्ध हुआ। अब्रह्मचर्य-सेवन की