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[उपासकदशांगसूत्र निक्खेवो' ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥ उस देव द्वारा पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा कहे जाने पर श्रमणोपासक सकडालपुत्र के मन में चुलनीपिता की तरह विचार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा-जिसने मेरे बड़े पुत्र को, मंझले पुत्र को तथा छोटे पुत्र को मारा, उनका मांस और रक्त मेरे शरीर पर छिड़का, अब मेरी सुख-दु:ख में सहयोगिनी पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आकर मेरे आगे मार देना चाहता हैं , मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं इस पुरूष को पकड़ लूं। यों विचार कर वह दौड़ा।
आगेकी घटना चुलनीपिता की तरह की समझनी चाहिए।
सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने कोलाहल सुना। शेष घटना चुलनीपिता की तरह ही कथनीय है। केवल इतना भेद है, सकडालपुत्र अरूणभूत विमान में उत्पन्न हुआ। (वहां उसकी आयु चार पल्योपम की बतलाई गई।) महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा।
__ "निक्षेप"२ सातवें अंग उपासकदशा का अध्ययन समाप्त ॥
१. एवं खलु जम्बू! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेति बेमि। २. निगमन--आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू! सिद्धि प्राप्त भगवान् ने उपासकदशा के सातवें अध्ययन का यही अर्थ-भाव
कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है।