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सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र]
[१७९ लिए सुयोग्य चिकित्सक चाहिए, उसी प्रकार धार्मिक आरोग्य देने के लिए भी वैसे ही कुशल व्यक्ति की आवश्यकता होती हैं । अग्निमित्रा वैसी ही कौशल-सम्पन्न 'धर्मवैद्या' थी।
पत्नी से पति को सेवा, प्यार, ममता-ये सब तो प्राप्य हैं, पर आवश्यकता होने पर धार्मिक प्रेरणा, आध्यात्मिक उत्साह, साधना का सम्बल प्राप्त हो सके, यह एक अनूठी बात होती है । बहुत कम पत्नियां ऐसी होंगी, जो अपने पति के जीवन में सूखते धार्मिक स्त्रोत को पुनः सजल बना सकें। अग्निमित्रा की यह अद्भुत विशेषता थी। अतएव उसके लिए प्रयुक्त 'धर्म-वैद्या' विशेषण अत्यन्त सार्थक है। यही कारण है, जो सकडालपुत्र तीनों बेटों की निर्मम, नृशंस हत्या के समय अविचल, अडोल रहता है, वह अग्निमित्रा की हत्या की बात सुनते ही कांप जाता है, धीरज छोड़ देता है, क्षुब्ध हो जाता है। शायद सकडालपुत्र के मन में आया हो-अग्निमित्रा का, जो मेरे धार्मिक जीवन की अनन्य सहयोगिनी ही नहीं, मुझ में आने वाली धार्मिक दुर्बलताओं को मिटाकर मुझे धर्मिष्ठ बनाए रखने में अनुपम प्रेरणादायिनी है, यों दुःखद अन्त कर दिया जाएगा? मेरे भावी जीवन में यो घोर अन्धकार छा जाएगा।
२२८. तए णं से सद्दालुपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ।
देव द्वारा यों कहे जाने पर भी सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा।
२२९. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हं भो! सद्दालपुत्ता! समणोवासया! तं चेव भणइ।
___तब उस देव ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र को पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा ही कहा। अन्तःशुद्धि आराधना : अन्त
२३०. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्स्स समाणस्स अयं अज्झत्थिए समुप्पन्ने ४ एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिंतेइ। जेणं ममं जेठं पुत्तं ममं मज्झिमयं पुत्तं, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव' आयंचइ, जा वि य णं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया सम-सुह-दुक्खसहाइया, तं पि य इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता ममं अग्गओ घाएत्तए। तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए। जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियव्वं । नवरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ। सेसं जहा चुलणीपिया वत्तव्वया, नवरं अरूणभूए विमाणे उववन्ने जाव (चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।
१. देखें सूत्र-संख्या ९८ । २. देखें सूत्र-संख्या १३६ ।