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सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र]
. [१७७ मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र का यह कथन स्वीकार किया और वह उसकी कर्म-शालाओं में प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या, संस्तारक) ग्रहण कर रह गया। निराशापूर्ण गमन
२२२. तए णं से गोसाले मंखलि-पुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ बहू हिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितंते पोलासपुराओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ।
मंखलिपुत्र गोशालक आख्यापना-अनेक प्रकार से कहकर, प्रज्ञापना-भेदपूर्वक तत्त्व निरूपण कर, संज्ञापना-भली भांति समझा कर तथा विज्ञापना-उसके मन के अनुकूल भाषण करके भी वह श्रमणोपासक सकडालपुत्र को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित-विपरीत परिणाम युक्त नहीं कर सका-उसके मनोभावों को बदल नहीं सका तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर पोलासपुर नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गया। देवकृत उपसर्ग
- २२३. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील-जाव' भावेमाणस्स चोइस संवच्छराइं वइक्ताई। पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स पुव्व-रत्तावरत्त-काले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवसो महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं विहरइ।
तदन्तर श्रमणोपासक सकडालपुत्र को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था, तब एक बार आधी रात के समय वह श्रमण भगवान् के पास अंगीकृत धर्मप्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधषाला में उपासनारत था।
२२४. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्य पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था।
अर्द्ध-रात्रि में श्रमणोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ।
२२५. तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ। नवरं एक्केक्के पुत्ते नव मंससोल्लए करेइ जाव कनीयसं घाएइ, घाएत्ता जाव' आयंचइ। १. देखें सूत्र-संख्या १२२ २. देखें सूत्र-संख्या ९२ ३. देखें सूत्र-संख्या ११६ ४. देखें सूत्र-संख्या १३६ ५. देखें सूत्र-संख्या १३६