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[ उपासकदशांगसूत्र
सीमा तेरह पत्नियों तक रखी। लेन-देन के सन्दर्भ में भी उसने प्रतिदिन दो द्रोण-प्रमाण कांस्य - परिमित स्वर्ण मुद्राओं तक अपने को मर्यादित किया ।
महाशतक की प्रमुख पत्नी रेवती व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में भी बहुत धनाढ्य थी, पर उसके मन में अर्थ और भोग की अदम्य लालसा थी। एक बार आधी रात के समय उसके मन में विचार आया कि यदि मैं अपनी बारह सौतों की हत्या कर दूं तो सहज ही उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति पर मेरा अधिकार हो जाय और महाशतक के समय मैं एकाकिनी मनुष्य जीवन का विपुल विषय-सुख भोगती रहूं। बड़े घर की बेटी थी, बड़े परिवार में थी, बहुत साधन थे । उसने किसी तरह अपनी इस दुर्लालसा को पूरा कर लिया । अपनी सौतों को मरवा डाला। उसका मन चाहा हो गया। वह भौतिक सुखों में लिप्त रहने लगी। जिसमें अर्थ और भोग की इतनी घृणित लिप्सा होती है, वैसे व्यक्ति में और भी दुर्व्यसन होते हैं। रेवती मांस और मदिरा में लोलुप और आसक्त रहती थी । रेवती मांस में इतनी आसक्त थी कि उसके बिना वह रह नहीं पाती थी। एक बार ऐसा संयोग हुआ, राजगृह में राजा की ओर से अमारिघोषणा करा दी गई। प्राणि-वध निषिद्ध हो गया। रेवती के लिए बड़ी कठिनाई हुई । पर उसने एक मार्ग खोज निकाला। अपने पीहर से प्राप्त नौकरों के मार्फत उसने अपने पीहर के गोकुलों से प्रतिदिन दोदो बछड़े मार कर अपने पास पहुंचा देने की व्यवस्था की। गुप्त रूप से ऐसा चलने लगा । रेवती की विलासी वृत्ति आगे उत्तरोत्तर बढ़ती गई ।
श्रमणोपासक महाशतक का जीवन एक दूसरा मोड़ लेता जा रहा था । वह व्रतों की उपासना, आराधना में आगे से आगे बढ़ रहा था । ऐसा करते चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। उसकी धार्मिक भावना ने और वेग पकड़ा। उसने अपना कौटुम्बिक और सामाजिक उत्तरदायित्व अपने बड़े पुत्र को सौंप दिया। स्वयं धर्म की आराधना में अधिकाधिक निरत रहने लगा। रेवती को यह अच्छा नहीं लगा ।
एक दिन की बात है, महाशतक पोषधशाला में धर्मोपासना में लगा था। शराब के नशे में उन्मत्त बनी रेवती लड़खड़ाती हुई, अपने बाल बिखेरे पोषधशाला में आई। उसने श्रमणोपासक महाशतक को धर्मोपासना से डिगाने की चेष्टा की। बार-बार कामोद्दीपक हावभाव दिखाए और उससे कहा- तुम्हें इस धर्माराधना से स्वर्ग ही तो मिलेगा ! स्वर्ग में इस विषय सुख से बढ़ कर कुछ है ? धर्म की आराधना छोड़ दो, मेरे साथ मनुष्यजीवन के दुर्लभ भोग भोगो। एक विचित्र घटना त्याग और भोग, विराग और राग का एक द्वन्द्व था । बड़ी विकट स्थिति यह होती है । भर्तृहरि ने कहा है
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"संसार में ऐसे बहुत से शुरवीर हैं, जो मद से उन्मत्त हाथियों के मस्तक को चूर-चूर कर सकते हैं, ऐसे भी योद्धा हैं, जो सिंहों को पछाड़ डालने में समर्थ हैं, किन्तु काम के दर्प का दलन करने में विरले ही पुरूष सक्षम होते हैं ।
तभी तक मनुष्य सन्मार्ग पर टिका रहता हैं, तभी तक इन्द्रियों की लज्जा को बचाए रख पाता है, तभी तक वह विनय और आचार बनाए रख सकता है, जब तक कामिनियों के भौहों रूपी धनुष से कानों तक खींच कर छोड़े हुए पलक रूपी नीले पंख वाले, धैर्य को विचलित कर देने वाले नयन-बाण