Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 215
________________ १७४] [ उपासकदशांगसूत्र भगवान् महावीर का समय एक ऐसा युग था, जिसमें गोपालन का देश में बहुत प्रचार था । उस समय के बड़े गृहस्थ हजारों की संख्या में गायें रखते थे । जैसा पहले वर्णित हुआ है, गोधन जहां समृद्धि का द्योतक था, उपयोगिता और अधिक से अधिक लोगों को काम देने की दृष्टि से भी उसका महत्त्व था। ऐसे गो-प्रधान युग में गायों की देखभाल करने वाले का - गोप का भी कम महत्त्व नहीं था । भगवान् ‘महागोप' के रूपक द्वारा यहां जो वर्णित हुए है, उसके पीछे समाज की गोपालनप्रधान वृत्ति का संकेत हैं । गायों को नियंत्रित करने वाला गोप उन्हें उत्तम घास आदि चरने के लोभ में भटकने नहीं देता, खोने नहीं देता, चरा कर उन्हें सायंकाल उनके बाड़े में पहुंचा देता है, उसी प्रकार भगवान् के भी ऐसे लोक-संरक्षक एवं कल्याणकारी रूप की परिकल्पना इसमें है, जो प्राणियों को संसार में भटकने से बचाकर मोक्ष रूप बाड़े में निविघ्न पहुंचा देते हैं । 'महासार्थवाह' शब्द भी अपने आप में बड़ा महत्त्वपूर्ण हैं । सार्थवाह उन दिनों उन व्यापारियों को कहा जाता था जो दूर-दूर भू-मार्ग से या जल-मार्ग से लम्बी यात्राएं करते हुए व्यापार करते थे । वे यदि भूमार्ग से वैसी यात्राओं पर जाते तो अनेक गाड़े गाडियां माल से भर कर ले जाते, जहां लाभ मिलता बेच देते, वहां दूसरा सस्ता माल भर लेते। यदि ये यात्राएं समुद्री मार्ग से होती तो जहाज ले जाते । यात्राएं काफी लम्बे समय की होती थीं, जहाज में बेचने के माल के साथ-साथ उपयोग की सारी चीजें भी रखी जातीं, जैसे पीने का पानी, खाने की चीजें, औषधियां आदि । इन यात्राओं का संचालक सार्थवाह कहा जाता था । ऐसे सार्थवाह की खास विशेषता यह होती, जब वह ऐसी व्यापारिक यात्रा करना चाहता, , सारे नगर में खुले रूप में घोषित करवाता, जो भी व्यापार हेतु इस यात्रा मे चलना चाहे, अपने सामान के साथ गाड़े- गाड़ियों या जहाज में आ जाय, उसकी सब व्यवस्थाएं सार्थवाह की ओर से होंगी। आगे पैसे की कमी पड़ जाय तो सार्थवाह उसे पूरी करेगा। इससे थोड़े माल वाले छोटे व्यापारियों को बड़ी सुविधा होती, क्योंकि अकेले यात्रा करने के साधन उनके पास होते नही थे। लम्बी यात्राओं में लूट-खसोट का भी भय था, ,जो सार्थ में नही होता, क्योंकि सार्थवाह आरक्षकों का एक शस्त्र-सज्जित दल भी अपने साथ लिए रहता था । यों छोटे व्यापारी अपने अल्पमत साधनों से भी दूर-दूर व्यापार कर पाने में सहारा पा लेते। सामाजिकता की दृष्टि से वास्तव में यह परम्परा बड़ी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण थी। इसलिए उन दिनों सार्थवाह की बड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था । 1 जैन आगमों में ऐसे अनेक सार्थवाहों का वर्णन है । उदाहरणार्थ, नायाधम्मकहाओ के १५वें अध्ययन में धन्य सार्थवाहक का वर्णन है। जब वह चंपा से अहिच्छात्रा की व्यापारिक यात्रा करना चाहता है तो वह नगर में सार्वजनिक रूप में इसी प्रकार की घोषणा कराता है कि उसके सार्थ में जो भी चलना चाहे, सहर्ष चले आचार्य हरिभद्र ने समरादित्यकथा के चौथे भव में धन नामक सार्थवाहपुत्र की ऐसी ही यात्रा की चर्चा की है, जब वह अपने निवास स्थान सुशर्मनगर से ताम्रलिप्ति जा रहा था । उसने भी इसी प्रकार

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