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सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र]
[१५९ से मुक्त हो जाता है, वह ब्रह्मभाव--ब्राह्मणत्व प्राप्त करने में समर्थ होता है।
जिससे बिना भोजन के ही मनुष्य परितृप्त हो जाता है, जिसके होने पर धनहीन पुरूष भी पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, धृत आदि स्निग्ध पौष्टिक पदार्थ सेवन किए बिना जहाँ मनुष्य अपने में अपरिमित शक्ति का अनुभव करता है, वैसे ब्रह्मभाव को जो अधिगत कर लेता है, वही वेदवेत्ता ब्राह्मण
कर्मों का अतिक्रम कर जाने वाले-कर्मों से मुक्त, विषय-वासनाओं से रहित, आत्मगुण को प्राप्त किए हुए ब्राह्मण को जरा और मुत्यु नहीं सताते ।'५
इसी प्रकार इसी पर्व के ६२वें अध्याय में, ७३ वें अध्याय में तथा और भी बहुत से स्थानों पर ब्राह्मणत्व का विवेचन हुआ है । प्रस्तुत विवेचन की गहराई में यदि हम जाएं तो स्पष्ट रूप में यह प्रतीत होगा कि महाभारतकार व्यासदेव की ध्वनि भी उत्तराध्ययन एवं धम्मपद से कोई भिन्न नहीं है।
____ भारतीय समाज-व्यवस्था के नियामक मनु के ब्राह्मण का अत्यन्त उत्तम चरित्रशील पुरूष के रूप में उल्लेख किया तथा उसके चरित्र में शिक्षा लेने की प्रेरणा दी है।
इन विवेचनों को देखकर समझा जा सकता है कि पुरातन भारतीय वर्णव्यवस्था का आधार गुण, कर्म था, आज की भांति वंशपरम्परा नहीं। सकडालपुत्र की कल्पना
१८८. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४-चिंतिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने-एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते, से णं महामाहणे उप्पन्न-णाण-दसणधरे जाव तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते, से णं कल्लं इहं हव्वमागच्छिस्सइ। तए णं तं अहं वंदिस्सामि जाव (सक्कारे स्सामि, सम्माणेस्सामि, कल्याणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पज्जुवासिस्सामि पाडिहारिएणं जाव (पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं) उवनिमंतिस्सामि।
उस देव द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया, मनोरथ, चिन्तन और संकल्प उठा-मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, महामाहन, अप्रतिम ज्ञान-दर्शन के धारक, (अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों काल के ज्ञाता, अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक अत्यन्त हर्षपूर्वक जिनके दर्शन की उत्सुकता लिए रहते हैं, जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं , देव, मनुष्य तथा असुर-सभी द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, पर्युपासनीय,) सत्कर्म-सम्पत्तियुक्त मंखलिपुत्र गोशालक कल यहां पधारेंगे। तब मैं उनकी वंदना, (सत्कार एवं सम्मान करूंगा। वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा १. महाभारत शान्तिपर्व २५१. १, ३, ६, ७, १८, २२ । २. मनुस्मृति २, २० ३. देखें सूत्र-संख्या १८७