Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 198
________________ [ १५७ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र ] जो अपने स्वजन, कुटुम्बी जन आदि में आसक्त नहीं होता, प्रव्रजित होने में अधिक सोचविचार नहीं करता तथा जो आर्य उत्तम धर्ममय वचनों में रमण करता है, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं । जिस प्रकार अग्नि में तपाया हुआ सोना शुद्ध एवं निर्मल होता हे, उसी प्रकार जो राग, द्वेष तथा भय आदि से रहित है, हमारी दृष्टि में वही ब्राह्मण है । जो इन्द्रिय - विजेता है, तपश्चरण में संलग्न है, फलतः कृश हो गया है, उग्र साधना के के कारण जिसके शरीर में रक्त और मांस थोड़ा रह गया हैं, जो उत्तम व्रतों द्वारा निर्वाण प्राप्त करने पर आरूढ है, वास्तव में वही ब्राह्मण है । जो त्रस - चलने फिरने वाले, स्थावर - एक जगह स्थिर रहने वाले प्राणियों को सूक्ष्मता से जानकर तीन योग - मन, वचन एवं काया द्वारा उनकी हिंसा नहीं करता, वही ब्राह्मण है । जो क्रोध, हास्य, लोभ तथा भय से असत्य भाषण नहीं करता, हम उसी को ब्राह्मण कहते है । सचित या अचित्त, थोड़ी या बहुत कोई भी वस्तु बिना दी हुई नहीं लेता, ब्राह्मण वही है । जो मन, वचन एवं शरीर द्वारा देव, मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का सेवन नहीं करता, वास्तव में वही ब्राह्मण है 1 कमल यद्यपि जल में उत्पन्न होता है, पर उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो काम - भोगों से अलिप्त रहता है, वही ब्राह्मण है । जो अलोलुप, भिक्षा पर निर्वाह करने वाला, गृह - त्यागी तथा परिग्रह - त्यागी होता है, गृहस्थों के साथ आसक्ति नहीं रखता, वही ब्राह्मण है । जो जातीय जनों और बन्धुजनों का पूर्व संयोग छोड़कर त्यागमय जीवन अपना लेता है, लौटकर फिर भोगों में आसक्त नहीं होता, हमारी दृष्टि में वही ब्राह्मण है ।" यहां ब्राह्मण के व्यक्तित्व का जो शब्द - चित्र उपस्थित किया गया है, उससे स्पष्ट है, जयघोष मुनि के शब्दों में महान् त्यागी, आध्यात्मिक साधना के पथ पर सतत गतिशील, निरपवाद रूप में व्रतों का परिपालक साधक ही वस्तुतः ब्राह्मण होता है । बौद्धों के धम्मपद का अन्तिम वर्ग या अध्याय ब्राह्मणवग्ग है, जिसमें ब्राह्मण के स्वरूप, गुण, चरित्र आदि का वर्णन है। वहां कहा गया है " 'जिसके पार - नेत्र, कान, नासिका, जिह्वा, काया तथा मन, अपार-रूप शब्द, गन्ध, रस स्पर्श तथा पारापार - मैं और मेरा ये सब नहीं है, अर्थात् जो एषणाओं और भोगों से ऊंचा उठा हुआ है, निर्भय है, अनासक्त है, वह ब्राह्मण है । ब्राह्मण के लिए यह बात कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह अपना मन प्रिय भोगों से हटा लेता है । जहां मन हिंसा से निवृत्त हो जाता है, वहां दुःख स्वयं ही शान्त हो जाता है । १. उत्तराध्ययन सूत्र २५ । २०- २९ ।

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