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सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र]
[१६१ महइ जाव' धम्मकहा समत्ता।
तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा विशाल परिषद् को धर्म-देशना दी।
१९२. सद्दालपुत्ता! इ समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-से नूणं, सद्दालपुत्ता! कल्लं तुमं पुव्वावरण्ह-काल-समयंसि जेणेव असोग-वणिया जाव विहरसि। तए णं तुभं एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था। तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने एवं वयासी-हं भो! सद्दालपुत्ता! तं चेव सव्वं जाव पजूवासिस्सामि, से नूणं, सद्दालपुत्ता! अढे समठे? हंता! अत्थि। नो खलु, सद्दालपुत्ता! तेणं देवेणं गोसालं मंखलिपुत्तं पणिहाय एवं वुत्ते।
श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-सकडालपुत्र! कल दोपहर के समय तुम जब अशोकवाटिका में थे जब एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ, आकाशस्थित देव ने तुम्हें यों कहा- कल प्रात: अर्हत्, केवली आएंगे।
भगवान् ने सकडालपुत्र को उसके द्वारा वंदन नमन,, पर्युपासना करने के निश्चय तक का सारा वृत्तान्त कहा। फिर उससे पूछा-सकडालपुत्र! क्या ऐसा हुआ? सकडालपुत्र बोला-ऐसा ही हुआ। तब भगवान् ने कहा-सकडालपुत्र! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक को लक्षित कर वैसा नहीं कहा था। सकडाल पर प्रभाव
___ १९३. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासयस्स समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४ (चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे)-एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे, उत्पन्न-णाणदंसणधरे, जाव तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते। तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढ-फलग जाव (सेज्जा-संथारएणं) उवनिमंतित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उट्ठाए, उढेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया पंच कुंभकारावणसया। तत्थ णं तुब्भे पाडिहारियं पीढ जाव (फलगसज्जा) संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरह।
श्रमण भगवान् महावीर द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया-श्रमण भगवान् महावीर ही महामाहन, उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक तथा सत्कर्म
१. देखें सूत्र-संख्या ११ २. देखें सूत्र-संख्या १८५ ३. देखें सूत्र-संख्या १८८ ४. देखें सूत्र-संख्या १८८