Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छठा अध्ययन सार-संक्षेप
__काम्पिल्यपुर में कुंडकौलिक नामक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम पूषा था। काम्पिल्यपुर भारत का एक प्राचीन नगर था। भगवान् महावीर के समय में वह बहुत समृद्ध एवं प्रसिद्ध था। उत्तरप्रदेश में बूढ़ी गंगा के किनारे बदायूं और फर्रूखाबाद के बीच कम्पिल नामक आज भी एक गांव है, जो इतिहासकारों के अनुसार काम्पिल्यपुर का वर्तमान रूप है। काम्पिल्यपुर आगम-वाङ्मय में अनेक स्थानों पर संकेतित, भगवान् महावीर के समसामयिक राजा जितशत्रु के राज्य में था। वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। संभवत: आम के हजार पेड़ होने के कारण उद्यानों के ऐसे नाम रखे जाते रहे हों।
गाथापति कुंडकौलिक एक समृद्ध एवं सुखी गृहस्थ था। उसकी अठारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं में छह करोड़ मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, छह करोड़ व्यापार में एवं छह करोड़ घर के वैभव तथा साज-सामान में लगी थीं। दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके पास थे।
ऐसा प्रसंग बना, एक समय भगवान् महावीर काम्पिल्यपुर पधारे । अन्यान्य लोगों की तरह गाथापति कुंडकौलिक भी भगवान् के सान्निध्य में पहुंचा, धर्मदेशना सुनी, प्रभावित हुआ, श्रावक-धर्म स्वीकार किया। जहां जीवन में, अब से पूर्व लौकिक भाव था, उसमें अध्यात्म का समावेश हुआ। कुंडकौलिक स्वीकृत व्रतों का भली-भांति पालन करता हुआ एक उत्तम धार्मिक गृहस्थ का जीवन जीने लगा।
एक दिन की बात है, वह दोपहर के समय धर्मोपासना की भावना से अशोकवाटिका में गया। वहां अपनी अंगूठी और उत्तरीय उतार कर पृथ्वीशिलापट्टक पर रखे, स्वयं धर्म-ध्यान में संलग्न हो गया। उसकी श्रद्धा को विचलित करने के लिए एक देव वहां प्रकट हुआ। उसका ध्यान बंटाने के लिए देव ने वह अंगूठी और दुपट्टा उठा लिया और आकाश में स्थित हो गया। देव ने कुंडकौलिक से कहादेखो, मंखलिपुत्र गोशालक के धर्म-सिद्धान्त बहुत सुन्दर हैं। वहां प्रयत्न, पुरूषार्थ, कर्म-इनका कोई महत्त्व नहीं है । जो कुछ होने वाला है, सब निश्चित है । भगवान् महावीर के धार्मिक सिद्धान्त उत्तम नहीं हैं । वहां तो उद्यम, प्रयत्न, पुरूषार्थ-सबका स्वीकार है, और जो कुछ होता है, वह सब उनके अनुसार नियत नहीं है। अब दोनों का अन्तर तुम स्वयं देख लो। गौशालक के सिद्धान्त के अनुसार पुरूषार्थ, प्रयत्न आदि जो कुछ किया जाता है, सब निरर्थक है, करने की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि अन्त में होगा वही, जो होने वाला है।