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सातवां अध्ययन : सार : संक्षेप ]
[१५१ अनुकूल प्रतीत हुआ। उन्होंने उससे पूछा-ये बर्तन कैसे बने? सकडालपुत्र बोला--भगवन् ! पहले मिट्टी एकत्र की, उसे भिगोया, उसमें राख तथा गोबर मिलाया, गूंधा, सबको एक किया, फिर उसे चाक पर चढ़ाया और भिन्न-भिन्न प्रकार के बर्तन बनाए।
भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! एक बात बताओ। तुम्हारे ये बर्तन प्रयत्न, पुरूषार्थ तथा उद्यम से बने है या अप्रयत्न, अपूरूषार्थ और अनुद्यम से?
सकडालपुत्र-भगवन् ! अप्रयत्न, अपुरूषार्थ और अनुद्यम से। क्योंकि प्रयत्न, पुरूषार्थ और उद्यम का कोई महत्त्व नहीं है । जो कुछ होता है, सब निश्चित है।
भगवान् महावीर--सकडालपुत्र! जरा कल्पना करों कोई पुरूष तुम्हारे हवा लगे, सूखे बर्तनों को चुरा ले, उन्हें बिखेर दें, तोड़ दे या तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ बलात्कार करे, तो तुम उसे क्या दण्ड दोगे!
सकडालपुत्र-भगवन् ! मैं उसको फटकारूंगा, बुरी तरह पीटूंगा, अधिक क्या, जान से मार डालूंगा।
___ भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! ऐसा क्यों? तुम तो प्रयत्न और पुरूषार्थ को नहीं मानते। सब भावों को नियत मानते हो। तब फिर जो पुरूष वैसा करता है, उसमें उसका क्या कर्तृत्व है? वैसा तो पहले से ही नियत है । उसे दोषी भी कैसे मानोगे? यदि तुम कहो कि वह तो प्रयत्नपूर्वक वैसा करता है, तो प्रयत्न और पुरूषार्थ को न मानने का, सब कुछ नियत मानने का तुम्हारा सिद्धान्त गलत है , असत्य है।
सकडालपुत्र एक मेधावी और समझदार पुरूष था। इस थोड़ी सी बातचीत से यथार्थ तत्त्व उसकी समझ में आ गया। उसने संबोधि प्राप्त कर ली। उसका मस्तक श्रद्धा से भगवान् महावीर के चरणों में झुक गया। जैसा उस समय के विवेकी पुरूष करते थे, उसने भगवान् महावीर से बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया। उसकी प्रेरणा से उसकी पत्नी अग्निमित्रा ने भी वैसा ही किया। यों पतिपनि सद्धर्भ को प्राप्त हुए तथा अपने गृहस्थ जीवन के साथ-साथ धार्मिक आराधना में भी अपने समय का सदुपयोग करने लगे।
सकडालपुत्र मंखलिपुत्र गोशालक का प्रमुख श्रावक था। जब गोशालक ने यह सुना तो साम्प्रदायिक मोहवश उसे यह अच्छा नहीं लगा। उसने मन ही मन सोचा, मुझे सकडालपुत्र को पुनः समझाना चाहिए और अपने मत में वापस लाना चाहिए। इस हेतु वह पोलासपुर में आया। आजीविकों के उपाश्रय में रुका। अपने पात्र, उपकरण आदि वहां रखे तथा अपने कुछ शिष्यों के साथ सकडालपुत्र के यहां पहुंचा। सकडालपुत्र तो सत् तत्त्व और सद्गुरू प्राप्त कर चुका था, इसलिए गोशालक के आने पर पहले वह जो श्रद्धा, आदर एवं सम्मान दिखाता था, उसने वैसा नहीं किया, चुपचाप बैठा रहा। गोशालक खूब चालाक था, झट समझ गया। उसने युक्ति निकाली। सकडालपुत्र को प्रसन्न करने के लिए उसने भगवान् महावीर की खूब गुण-स्तवना की। गोशालक के इस कटनीतिक व्यवहार को वह समझ नहीं सका। गोशालक की मंशा यह थी कि किसी प्रकार पुनः मुझे सकडालपुत्र के साथ धार्मिक बातचीत का अवसर मिल जाय तो मैं इसकी मति बदलूं। सकडालपुत्र ने भगवान् महावीर के प्रति