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[उपासकदशांगसूत्र यह सुनकर कुंडकौलिक बोला-देव! जरा एक बात बतलाओ। तुमने यह जो दिव्य ऋद्धि, द्युति, कान्ति, वैभव प्राप्त किया है, वह सब क्या पुरूषार्थ एवं प्रयत्न से प्राप्त किया अथवा अपुरूषार्थ व अप्रयत्न से? क्या प्रयत्न एवं पुरूषार्थ किए बिना ही यह सब पाया है?
देव बोला-कुंडकौलिक ! यह मैंने बिना पुरूषार्थ और बिना प्रयत्न ही पाया है।
इस पर कुंडकौलिक ने कहा-देव! यदि ऐसा हुआ है तो बतलाओ, जो अन्य प्राणी पुरूषार्थ एवं प्रयत्न नहीं करते रहे हैं, वे तुम्हारी तरह देव क्यों नहीं हुए? यदि तुम कहो कि यह दिव्य ऋद्धि एवं वैभव तुम्हें पुरूषार्थ एवं प्रयत्न से मिला है, तो फिर तुम गोशालक के सिद्धान्त को, जिसमें पुरूषार्थ व प्रयत्न स्वीकार नहीं है, सुन्दर कैसे कह सकते हो? और भगवान् महावीर के सिद्धान्त को, जिसमें पुरूषार्थ व प्रयत्न को स्वीकार है, असुन्दर कैसे बतला सकते हो? तुम्हारा कथन मिथ्या है।
कुंडकौलिक का युक्तियुक्त एवं तर्कपूर्ण कथन सुनकर देव से कुछ उत्तर देते नहीं बना। वह सहम गया। उसने वह अंगूठी एवं दुपट्टा चुपचाप पृथ्वीशिलापट्टक पर रख कर और अपना-सा मुँह लिए वापस लौट गया।
शुभ संयोगवश भगवान् महावीर अपने जनपद-विहार के बीच पुनः काम्पिल्यपुर पधारे। ज्योंही कुंडकौलिक को ज्ञात हुआ, वह भगवान् को वंदन करने गया। उनका सान्निध्य प्राप्त किया, धर्मदेशना सुनी।
__ भगवान् महावीर तो सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी थे। जो कुछ घटित हुआ था, उन्हें सब ज्ञात था। उन्होंने कुंडकौलिक को सम्बोधित कर अशोकवाटिका में घटित सारी घटना बतलाई और उससे पूछा-क्यों? क्या यह सब घटित हुआ? कुंडकौलिक ने अत्यन्त विनय और आदरपूर्वक कहा--प्रभो! आप सब कुछ जानते हैं । जैसा आपने कहा-अक्षरशः वैसा ही हुआ।
__कुंडकौलिक की धार्मिक आस्था और तत्त्वज्ञता पर भगवान् प्रसन्न थे। उन्होंने उसे वर्धापित करते हुए कहा-कुंडकौलिक! तुम धन्य हो, तुमने बहुत अच्छा किया।
वहाँ उपस्थित साधु-साध्वियों को प्रेरणा देने हेतु भगवान् ने उनसे कहा-गृहस्थ में रहते हुए भी कुंडकौलिक कितना सुयोग्य तत्ववेत्ता है ! इसने अन्य मतानुयायी को युक्ति और न्याय से निरूत्तर किया।
भगवान् ने यह आशा व्यक्त की कि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले साधु-साध्वी तो ऐसा करने में सक्षम हैं ही। उनमें तो ऐसी योग्यता होनी ही चाहिए।
कुंडकौलिक की घटना को इतना महत्त्व देने का भगवान् का यह अभिप्राय था, प्रत्येक धर्मोपासक अपने धर्म-सिद्धान्तों पर दृढ़ तो रहे ही, साथ ही साथ उसे अपने सिद्धान्तों का ज्ञान भी हो तथा उन्हें औरों के समक्ष उपस्थित करने की योग्यता भी, ताकि उनके साथ धार्मिक चर्चा करने वाले अन्य मतानुयायी व्यक्ति उन्हें प्रभावित न कर सकें । प्रत्युत उनके युक्तियुक्त एवं तर्कपूर्ण विश्लेषण पर वे निरूत्तर हो जाएं । वास्तव में भगवान् महावीर द्वारा सभी धर्मोपासकों को तत्त्वज्ञान में गतिमान रहने