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[ उपासकदशांगसूत्र
वस्त्रों में लगी छोटी-छोटी घंटियों की झनझनाहट के साथ वह आकाश में अवस्थित हुआ, श्रमणोपासक कुंडकौलिक से बोला- कुंडकौलिक ! देवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म - प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा सुन्दर है। उसके अनुसार उत्थान-साध्य के अनुरूप ऊर्ध्वगामी प्रयत्न, कर्म, बल - दैहिक शक्ति, वीर्य - आन्तरिक शक्ति, पुरुषकार -- पौरुष का अभिमान, पराक्रम - पौरुष के अभिमान के अनुरूप उत्साह एवं ओजपूर्ण उपक्रम - इनका कोई स्थान नहीं हैं। सभी भाव होनेवाले कार्य नियत निश्चित हैं। उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य, पौरूष) पराक्रम इन सबका अपना अस्तित्व है, सभी भाव नियत नहीं हैं - भगवान् महावीर की यह धर्म-प्रज्ञप्ति - धर्म - प्ररूपणा असुन्दर या अशोभन है ।
विवेचन
मंखलिपुत्र गोशालक का भगवतीसूत्र के १५ वें शतक में विस्तार से वर्णन है । आगमोत्तर साहित्य में भी आवश्यक निर्युक्ति आदि में उससे सम्बद्ध घटनाओं का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में मज्झिमनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, सयुत्तनिकाय आदि ग्रन्थों में उसका वर्णन है। दीघनिकाय पर बुद्धघोष द्वारा रचित सुमंगलविलासिनी टीका के 'सामञ्त्रफलसुत्तवण्णन' में गोशालक के सिद्धान्तों की विशद चर्चा है। गोशालक भगवान् महावीर के समसामयिक अवैदिक परम्परा के छह प्रमुख आचार्यों में था । भगवतीसूत्र में उल्लेख है, मंख (डाकोत) जातीय मंखलि नामक एक व्यक्ति था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। मंखलि भिक्षोपजीवी था। वह इस निमित्त एक चित्रपट हाथ में लिए रहता था। अपनी गर्भवती पत्नी भद्रा के साथ भिक्षार्थ घूमता हुआ वह एक बार सरवण नामक गांव में पहुँचा। वहाँ और स्थान न मिलने से वह चातुर्मास व्यतीत करने के लिए गोबहुलनामक ब्राह्मण की गोशाला में टिका । गर्भकाल पूरा होने पर भद्रा ने एक सुन्दर एवं सुकुमार शिशु को जन्म दिया। गोबहुल की गोशाला में जन्म लेने के कारण शिशु का नाम गोशाल या गोशालक रखा गया ।
गोशालक क्रमश: बड़ा हुआ, पढ़-लिखकर योग्य हुआ । वह भी स्वतन्त्र रूप से चित्रपट हाथ लिए भिक्षा द्वारा अपनी आजीविका चलाने लगा ।
एक बार भगवान् महावीर राजगृह के बाहर नालन्दा के बुनकरों की तन्तुवायशाला के एक भाग में अपना चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। संयोगवश गौशालक भी वहाँ पहुँचा । अन्य स्थान न मिलने पर उसने उसी तन्तुवायशाला में चातुर्मास किया। वहाँ रहते वह भगवान् के अनुपम अतिशयशाली व्यक्त्वि तथा समय-समय पर घटित दिव्य घटनाओं से विशेष प्रभावित हुआ। उसने भगवान् के पास दीक्षित होना चाहा। भगवान् ने उसे दीक्षा देना स्वीकार नहीं किया। जब उसने आगे भी निरन्तर अपना प्रयास चालू रखा और पीछे ही पड़ गया, तब भगवान ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वह छह वर्ष तक भगवान् के साथ रहा। उनसे विपुल तेजोलेश्या प्राप्त की, फिर वह भगवान् से पृथक् हो गया। स्वयं अपने को अर्हत, तीर्थंकर, जिन और केवली कहने लगा ।
आगे चलकर एक ऐसा प्रसंग बना, द्वेष एवं जलनवश उसने भगवान् पर तेजालेश्या का प्रक्षेप किया। सर्वथा सम्पूर्ण रूप में अहिंसक होने के कारण भगवान् समभाव से उसे सह गए। तेजोलेश्या