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[उपासकदशांगसूत्र धरिजमाणेणं) मणुस्स-वग्गुरा-परिक्खित्ते सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चम्पं नयरिं मझं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव (जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता तिविहाए पन्जुवासणाए) पज्जुवासइ।
श्रमणोपासक कामदेव ने जब यह सुना कि भगवान् महावीर पधारे हैं, तो सोचा, मेरे लिए यह श्रेयस्कर है, मैं श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार कर, वापस लौट कर पोषध का पारण-- समापन करूं। यों सोच कर उसने शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र भली-भाँति पहने, (थोड़े से बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, कुरंट पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए पुरूषसमूह से घिरा हुआ) अपने घर से निकला। निकल कर चंपा नगरी के बीचे से गुजरा, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, (जहां श्रमण भगवान् महावीर थे,) शंख श्रावक की तरह आया। आकर (तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर त्रिविध-कायिक, वाचिक एवं मानसिक) पर्युपासना की।
११५. तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव' धम्मकहा समत्ता।
श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक कामदेव तथा परिषद् को धर्म-देशना दी। भगवान द्वारा कामदेव की वर्धापना
११६. कामदेवा! इ समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-से नूणं कामदेवा! तुब्भं पुव्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतिए पाउब्भूए। तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसाय-रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता आसुरत्ते एगं महं नीलुप्पल जाव (गवल-गुलिय-अयसि-कुसुम-प्पगासं, खुरधारं ) असिं गहाय तुमं एवं वयासी-हं भो कामदेवा! जाव जीवियाओ ववरो-विजसि। तं तुमं तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि।
एवं वण्णगरहिया तिण्णि वि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयव्वा जाव देवो पडिगओ। से नूणं कामदेवा! अढे समढे? हंता, अत्थि।
श्रमण भगवान् महावीर ने कामदेव से कहा--कामदेव! आधी रात के समय एक देव १. देखें सूत्र-संख्या ११ २. देखें सूत्र-संख्या १०७ ३. देखें सूत्र-संख्या ९८।