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[उपासकदशांगसूत्र प्रस्फुटित हुआ।
पिशाचरूपधर देव द्वारा तेज तलवार से शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए, कामदेव अपनी उपासना से नहीं हटा। देव ने दुर्दान्त, विकराल हाथी का रूप धारण कर उसे आकाश में उछाला, दातों से झेला, पैरों से रौंदा। उसके बाद भयावह सर्प के रूप में उसे उत्पीडित किया। यह सब कैसे संभव हो सका? देह के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाने पर कामदेव इस योग्य कैसे रहा कि उसे आकाश में फेका जा सके, रौंदा जा सके, कुचला जा सके। यहां ऐसी बात है-वह मिथ्यात्वी देव कामदेव को घोर कष्ट देना चाहता था ताकि कामदेव अपना धर्म छोड़ दे। अथवा उसकी धार्मिक दृढता की परीक्षा करना चाहता था। उसे मारना नहीं चाहता था। वैक्रिय-लब्धिधारी देवों की यह विशेषता होती है, वे देह के पुद्गलों को जिस त्वरा से विच्छिन्न करते हैं --काट डालते हैं , तोड़-फोड़ कर देते हैं, उसी त्वरा से तत्काल उन्हें यथावत् संयोजित कर सकते हैं। यह सब इतनी शीघ्रता से होता है कि आक्रान्त व्यक्ति को घोर पीडा का तो अनुभव होता है, यह भी अनुभव होता है कि वह काट डाला गया है, पर देह के पुद्गलों की विच्छिन्न्ता या पृथक्ता की दशा अत्यन्त अल्पकालिक होती है। इसलिए स्थूल रूप में शरीर वैसा का वैसा प्रतीत होता है। कामदेव के साथ ऐसा ही घटित हुआ।
कामदेव ने घोर कष्ट सहे, पर वह धर्म से विचलित नहीं हुआ। तब देव अपने मूल रूप में उपस्थित हुआ और उसने वह सब कहा, जिससे विद्वेषवश कामदेव को कष्ट देने हेतु वह दुष्प्रेरित हुआ था। वहां इन्द्र तथा उसके देव-परिवार के वर्णन में तीन परिषदें, आठ पटरानियों के परिवार सात सेनाएं आदि का उल्लेख है, जिनका विस्तार इस प्रकार है--
सौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र की तीन परिषदें होती है--शमिता--आभ्यन्तर, चण्डामध्यम तथा जाता--बाह्य । आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियां, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और छह सौ देवियां तथा बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पांच सौ देवियां होती हैं। आभ्यन्तर परिषद् में देवों की स्थिति पांच पल्योपम, देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद् में देवों की स्थिति चार पल्योपम, देवियों की स्थिति दो पल्योपम तथा बाह्य परिषद् में देवों की स्थिति तीन पल्योपम, देवियों की स्थिति एक पल्योपम होती है।
अग्रमहिषी-परिवार-प्रत्येक अग्रमहिषी-पटरानी के परिवार में पांच हजार देवियां होती है। यों इन्द्र केअन्तःपर में चालीस हजार देवियों का परिवार माना जाता है।
सेनाएँ-हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-यें पाँच सेनाएँ लड़ने हेतु होती हैं तथा दो सेनाएं-- गन्धर्वानीक-गाने-बजाने वालों का दल और नाट्यानीक-नाटक करने वालों का दल-आमोद-प्रमोदपूर्वक तदर्थ उत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं।
इस सूत्र में शतक्रतु तथा सहस्त्राक्ष आदि इन्द्र के कुछ ऐसे नाम आए हैं, जो वैदिक परम्परा में भी विशेष प्रसिद्ध हैं । जैनपरम्परा के अनुसार इन नामों का कारण एवं इनकी सार्थकता पहले अर्थ में बतलायी जा चुकी हैं । वैदिक परम्परा के अनुसार इन नामों का कारण दूसरा है । वह इस प्रकार है: