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द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव ]
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तुम्हें उपलब्ध- प्राप्त तथा अभिसमन्वागत-अधिगत है, वह सब मैंने देखा । देवानुप्रिय ! मैं तुमसे क्षमायाचना करता हूं । देवानुप्रिय ! मुझे क्षमा करो। देवानुप्रिय ! आप क्षमा करने में समर्थ हैं। मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा यो कहकर पैरों में पड़कर, उसने हाथ जोड़कर बार-बार क्षमा-याचना की । क्षमायाचना कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया।
विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा पिशाच, हाथी तथा सर्प का रूप धारण करने के प्रसंग में 'विकुव्वइ'विक्रिया या विकुर्वणा करना - क्रिया का प्रयोग है जो उसकी देव - जन्मलभ्य वैक्रिय देह का सूचक है। इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है -- जैन-दर्शन में औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच प्रकार के शरीर माने गए हैं। वैक्रिय शरीर दो प्रकार का होता है-ओपपातिक और लब्धिप्रत्यय । औपपातिक वैक्रिय शरीर देव-योनी और नरक-योनि में जन्म से ही प्राप्त होता है । पूर्वसंचित कर्मों का ऐसा योग वहां होता है, जिसकी फल- निष्पत्ति इस रूप में जन्म-जात होती है । लब्धि - प्रत्यय वैक्रिय शरीर तपश्चरण आदि द्वारा प्राप्त लब्धि-विशेष से मिलता है । यह मनुष्य योनि एवं तिर्यञ्च योनि में होता
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वैक्रिय शरीर में अस्थि, मज्जा, मांस, रक्त आदि अशुचि पदार्थ नहीं होते । एतद्वर्जित इष्ट, कान्त, मनोज, प्रिय एवं श्रेष्ठ पुद्गल देह के रूप में परिणत होते है, मृत्यु के बाद वैक्रिय- देह का शव नहीं बचता। उसके पुद्गल कपूर की तरह उड़ जाते हैं। जैसा कि वैक्रिय शब्द से प्रकट है - इस शरीर द्वारा विविध प्रकार की विक्रियाएं विशिष्ट क्रियाएं की जा सकती है, जैसे-एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, अनेक रूप होकर एक रूप धारण करना, छोटी देह को बड़ी बनाना, बड़ी को छोटी बनाना, पृथ्वी एवं आकाश में चलने योग्य विविध प्रकार के शरीर धारण करना, अदृश्य रूप बनाना इत्यादि ।
सौधर्म आदि देवलोकों के देव एक, अनेक, संख्यात, असंख्यात, स्व-सदृश, विसदृश सब प्रकार की विक्रियाएं या विकुर्वणाएं करने में सक्षम होते हैं। वे इन विकुर्वणाओं के अन्तर्गत एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सब प्रकार के रूप धारण कर सकते हैं ।
प्रस्तुत प्रकरण में श्रमणोपासक कामदेव को कष्ट देने के लिये देव ने विभिन्न रूप धारण किए। यह उसके उत्तरवैक्रिय रूप थे, अर्थात् मूल वैक्रिय शरीर के आधार पर बनाए गए वैक्रिय शरीर थे। श्रमणोपासक कामदेव को पीड़ित करने के लिए देव ने क्यों इतने उपद्रव किए, इसका समाधान इसी सूत्र में है । वह देव मिथ्यादृष्टि था । मिथ्यात्वी होते हुए भी पूर्व जन्म में अपने द्वारा किए गए तपश्चरण से देव - योनि तो उसे प्राप्त हो सकी, पर मिथ्यात्व के कारण निर्ग्रन्थ-प्रवचन या जिनधर्म के प्रति उसमें जो अश्रद्धा थी, वह देव होने पर भी विद्यमान रही । इन्द्र के मुख कामदेव की प्रशंसा सुन कर तथा, उत्कट धर्मोपासना में कामदेव को तन्मय देख उसका विद्वेष भभक उठा, जिसका परिणाम कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित करने के लिए क्रूर तथा उग्र कष्ट देने के रूप में