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द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव]
[१०३ विमाणे सभाए सुहम्माए) सक्कंसि सीहासणंसि चउरासीईए सामाणिय-साहस्सीणं जाव (तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्ह अणियाहिवईण, चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं) अन्नेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य मज्झगए एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ--एवं खलु देवा! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए कामदेवे समणोवासए पोसह-सालाए पोसहिए बंभयारी जाव ( उम्मुक्क -मणि-सुवण्णे, ववगयमाला-वण्णग-विलेवणे, निक्खित्त-सत्थ-मुसले, एगे, अबीए) दव्भ-संथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजिताणं विहरड़। नो खलु से सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाव (जक्खेण वा, रक्खसेण वा, किन्नरेण वा, किंपुरिसेण वा, महोरगेण वा) गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खेभित्तए वा विपरिणामित्तए वा।
तए णं अहं सक्कस्स देविंदस्स देव-रण्णो एयमढं असद्दहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे इहं हव्वमागए। तं अहो णं, देवाणुप्पिया! इड्डी, जुई, जसो, बलं, वीरियं, पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे, पत्ते, अभिसमण्णागए। तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिया! इड्डी जाव (जुई, जसो, बलं, वीरियं पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे, पत्ते) अभिसमण्णागए। तं खामेमि णं, देवाणुप्पिया! खमंतु मज्झ देवाणुप्पिया! खंतुमरहंति णं देवाणुप्पिया! नाइं भुजो करणयाए त्ति कटु पाय-वडिए, पंजलि-उडे एयमनॊ भुजो भुजो खामेइ, खामित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए।
सर्परूपधारी देव ने जब देखा-श्रमणोपासक कामदेव निर्भय है, वह उसे निर्ग्रन्थ--प्रवचन से विचलित क्षुभित एवं विपरिणामित नहीं कर सका है तो श्रान्त, क्लान्त खिन्न होकर वह धीरे-धीरे पीछे हटा। पीछे हटकर पोषध-शाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर देव-माया-जनित सर्प-रूप का त्याग किया। वैसा कर उसने उत्तम, दिव्य देव-रूप धारण किया।
उस देव के वक्षस्थल पर हार सुशोभित हो रहा था। (वह अपनी भुजाओं पर कंकण तथा बाहुरक्षिका--भुजाओं को सुस्थिर बनाए रखने वाली आभरणात्मक पट्टी, अंगद--भुजबन्ध धारण किए था। उसके मृष्ट--केसर, कस्तूरी आदि से मंडित--चित्रित कपोलों पर कर्ण-भूषण, कुण्डल शोभित थे। वह विचित्र--विशिष्ट या अनेकविध हस्ताभरण-हाथों के आभूषण धारण किए था। उसके मस्तक पर तरह-तरह की मालाओं से युक्त मुकुट था। वह कल्याणकृत्--मांगलिक, अनुपहत या अखडित प्रवर-उत्तम पोशाक पहने था। वह मांगलिक तथा उत्तम मालाओं एवं अनुलेपन-चन्दन, केसर आदि के विलेपन से युक्त था। उसका शरीर देदीप्यमान था। सभी ऋतुओं के फूलों से बनी माला उसके गले से घटनों तक लटकती थी। उसने दिव्य-देवोचित वर्ण,गन्ध, रूप, स्पर्श, संघात--दैहिक गठन, संस्थानदैहिक अवस्थिति, ऋद्धि-विमान, वस्त्र, आभूषण आदि दैविक समृद्धि, द्युति-आभा अथवा युक्ति-इष्ट