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[उपासकदशांगसूत्र जा चुका है। विशेषता यह है कि अन्ततः चुलनीपिता अपने व्रतों से विचलित हो गया।
व्रती या उपासक के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिक्षण सावधान रहे, अपने नियमों के यथावत् पालन में जागरूक रहे । ऐसा होते हुए भी कुछ ऐसी मानवीय दुर्बलताएं है, उपासक की दृढ़ता कभी-कभी टूट जाती है।
गुरू, पूज्य जन आदि से उद्बोधित होकर अथवा आत्म-प्रेरित होकर उपासक सहसा सावधान होता है, जीवन में वैसा अवांछनीय प्रसंग फिर न आए। वह अपने संकल्प को स्मरण करता है। पर्ववत दढता आ जाए. वह (संकल्प-व्रत) आगे फिर न टूटे, इसके लिए शास्त्रों में प्रायश्चित का विधान है। उपासक वहां अपने भीतर पैठ कर अपने स्वरूप, आचार, व्रत, स्थिति का ध्यान करता है। इस सन्दर्भ में आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा आदि शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग है जो यहां भी हुआ है। वैसे साधारणतया ये शब्द समानार्थक जैसे हैं, परन्तु सूक्ष्मता में जाएं तो प्रत्येक शब्द की
अपनी विशेषता है। जैन परम्परा में आत्म-शोधनमूलक इस उपक्रम का अपना विशेष प्रकार है, जिसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक चिन्तन है। आलोचना करने का आशय गुरू के सम्मुख अपनी भूल निवेदित करना है। यह बहुत लाभप्रद है। इससे भीतर का मैल धुल जाता है। प्रतिक्रमण शब्द का भी अपना महत्त्व है। उपासक अपने आप को सम्बोधित कर कहता है-आत्मन् ! वापस अपने आप में लौटो, बहिर्मुख हो तुम कहां चले गये थे? फिर निन्दा की बात आती है, उपासक आत्मा की साक्षी से भीतर ही भीतर अपनी भूल की निन्दा करता है। विचार करता है कि कैसा बुरा कार्य उससे बन पड़ा
को प्रत्यक्ष रूप में या भाव रूप में साक्ष्य बनाकर वह अपनी भल की प्रकट रूप में निन्दा करता है, जिसे गर्दा कहा जाता है, जो आन्तरिक खेद अनुभव करने का बहुत ही प्रेरणाप्रद रूप है। जिस विचारधारा के कारण भूल बनी, उस विचारधारा को सर्वथा उच्छिन्न कर देने हेतु उपासक संकल्पबद्ध होता है। अन्ततः वह प्रायश्चित्त के रूप में कुछ तपश्चरण स्वीकार करता है। . मनौवैज्ञानिक दृष्टि से यह एक ऐसा सुन्दर क्रम है, जिससे पुनः वैसी भूल यथासम्भव नहीं होती। जिन दुर्बलताओं के कारण वैसी भूल बनती है, वे दुर्बलताएं किसी न किसी रूप में दूर हो जाती हैं।
प्रस्तुत में चुलनीपिता की माता ने उसे कहा है--'तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है।' टीकाकार ने व्रतादि के भंग होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है--साधारणतया श्रावक अहिंसाणुव्रत में निरपराध जीव की हिंसा का त्याग करता है किन्त पोषध में निरपराध के साथ सापराध की हिंसा का भी त्याग होता है। चुलनीपिता ने क्रोधपूर्वक उपसर्गकारी के विनाश के लिए दौड़कर भावतः स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का उल्लंघन किया। यह उसके व्रतभंग का कारण हुआ। पोषध में क्रोध करने का भी परित्याग किया जाता है, किन्तु क्रोध-करने के कारण उत्तरगुणरूप नियम का भंग हुआ। अव्यापार के त्याग का उल्लंघन करने के कारण पोषध-भंग हुआ। इस प्रकार व्रत, नियम और पोषध भंग होने के कारण, पुनः विशुद्धि के लिए आलोचना आदि करना अनिवार्य था।
१४७. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयाए भद्दाए सत्थवाहीए 'तह' त्ति