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तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता]
[११९ जननी आया है, जो भारतीय आचार-परम्परा में माता के प्रति रहे सम्मान, आदर और श्रद्धा का द्योतक है। माता का सन्तति पर निश्चय ही अपनी सेवाओं का एक ऐसा ऋण होता हैं, जिसे किसी भी तरह उतारा जाना सम्भव नहीं है। इसलिए यहां माता की देवतुल्य पुजनीयता एवं सम्माननीयता की ओर संकेत है।
डॉ. रूडोल्फ हॉर्नले ने एक पुरानी व्याख्या के आधार पर देव-गुरू का अर्थ देवताओं के गुरू-बृहस्पति किया है। यों उनके अनुसार माता बृहस्पति के समान पूजनीय है।
___ भारत की सभी परम्पराओं के साहित्य में माता का असाधारण महत्त्व स्वीकार किया गया हैं। 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' के अनुसार माता और मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना है। मनु ने तो माता का बहुत अधिक गौरव स्वीकार किया है। उन्होंने माता को पिता से हजार गुना अधिक महत्त्व दिया है।
तैत्तिरीयोपनिषद् में उल्लेख हैं, अध्ययन सम्पन्न कराने के पश्चात् आचार्य जब शिष्य को भावी जीवन के लिए उपदेश करता है, तो वहाँ वह उसे विशेष रूप से कहता है, तुम अपनी माता को देवता के तुल्य समझना, पिता को देवता के तुल्य समझना, आचार्य को देवता के तुल्य समझना, अतिथि को देवता के तुल्य समझना, अनवद्य-अनिंद्य या निर्दोष कर्म करना, इतर-निंद्य या सदोष कर्म मत करना, गुरूजनों द्वारा सेवित शुभ आचरण या उत्तम चरित्र का पालन करना।
जैन-साहित्य और बौद्ध-साहित्य में भी माता का बहुत उच्च स्थान माना गया है। यहाँ प्रयुक्त इस विशेषण में भारतीय चिन्तनधारा के इस पक्ष की स्पष्ट झलक है।
१३४. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ।
उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भयता से धर्मध्यान में स्थित रहा।
१३५. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता चुलणीपियं समणोवासयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया! तहेव जाव (अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविजसि। १. The Uvasagadasao Lecture III Page 94
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥
___ -मनुस्मृति २. १४५ ३. मातृदेवो भव। पितृदेवो भव । आयार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि, तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि, तानि त्वयोपास्यानि।
__-तैत्तिरीयोपनिषद् वल्ली १. अनुवाक् ११.२ ४. देखें सूत्र-संख्या ९८। ५. देखें सूत्र-संख्या ९७।
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