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[उपासकदशांगसूत्र
परिवारादि योग, प्रभा, कान्ति, अर्चि--दीप्ति, तेज, लेश्या--आत्म-परिणति-तदनुरूप भामंडल से दसों दिशाओं को उद्योतित-प्रकाशयुक्त, प्रभासित--प्रभा या शोभा युक्त करते हुए, प्रसादित--प्रसाद या आह्लाद युक्त, दर्शनीय, अभिरूपमनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेने वाला, प्रतिरूप--मन में बस जाने वाला दिव्य देवरूप धारण किया। वैसा कर,) श्रमणोपासक कामदेव की पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर आकाश में अवस्थित हो छोटी-छोटी घण्टिकाओं से युक्त पांच' वर्गों के उत्तम वस्त्र धारण किए हुए वह श्रमणोपासक कामदेव से यों बोला--श्रमणोपासक कामदेव! देवानुप्रिय। तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, कृत-कृत्य हो, कृतलक्षण-शुभलक्षण वाले हो। देवानुप्रिय! तुम्हें निर्गन्थ-प्रवचन में ऐसी प्रतिपत्ति-विश्वास-आस्था सुलभ है, सुप्राप्त है, स्वायत्त है, निश्चय ही तुमने मनुष्य-जनम और जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया।
देवानुप्रिय! बात यों हुई-शक्र-शक्तिशाली, देवेन्द्र--देवों के परम ईश्वर-स्वामी, देवराजदेवों में सुशोभित, (वज्रपाणि-हाथ में वज्र धारण किए, पुरन्दर-पुर-असुरों के नगरविशेष के दारकविध्वंसक, शतक्रतु-पूर्वजन्म में कार्तिक श्रेष्ठी के भव में सौ बार विशिष्ट अभिग्रहों के परिपालक, सहस्त्राक्ष-हजार आंखों वाले--अपने पांच सौ मन्त्रियों की अपेक्षा हजार आंखों वाले मघवा-मेघोंबादलों के नियन्ता, पाकशासन-पाक नामक शत्रु के नाशक, दक्षिणार्द्ध-लोकाधिपति-लोक के दक्षिण भाग के स्वामी, बत्तीस लाख विमानों के अधिपति, ऐरावत नामक हाथी पर सवारी करने वाले, सुरेन्द्र-देवताओं के प्रभु, आकाश की तरह निर्मल वस्त्रधारी, मालाओं से युक्त मुकुट धारण किए हुए, उज्जवल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित, चंचल-हिलते हुए कुंडलों से जिनके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी, लम्बी पुष्पमाला पहने हुए इन्द्र ने सौधर्म कल्प के अन्तर्गत सौधर्मावतंसक विमान में, सुधर्मा सभा में) इन्द्रासन पर स्थित होते हुए चौरासी हजार सामानिक देवों (तेतीस गुरूस्थानीय त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपाल, परिवार सहित आठ अग्रमहिषियो-प्रमुख इद्राणियों, तीन परिषदों, सात अनीकों-सेनाओं, सात अनीकाधिपतियों--सेनापतियों, तीन लाख छत्तीस हजार अंगरक्षक देवों) तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों के बीच यो आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त या प्ररूपित किया--कहा--
देवों! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में, चंपा नगरी में श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में पोषध स्वीकार किए, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ (मणि-रत्न, सुवर्णमाला, वर्णक--सज्जा-हेतु मंडन-आलेखन एवं चन्दन केसर आदि के विलेपन का त्याग किए हुए, शस्त्र, दण्ड आदि से रहित, एकाकी, अद्वितीय-बिना किसी दूसरे को साथ लिए) कुश के बिछौने पर अवस्थित हुआ श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप उपासनारत है। कोई देव, दानव (यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरूष, महोरग), गन्धर्व द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से वह विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नही किया जा सकता।
शक्र, देवेन्द्र, देवराज के इस कथन में मुझे श्रद्धा, प्रतीति-विश्वास नहीं हुआ। वह मुझे अरूचिकर लगा। मैं शीघ्र यहां आया। देवानुप्रिय! जो ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरूषोचित पराक्रम
१. श्वेत. पीत. रक्त. नील. कृष्ण।