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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[६९ होने में जितना काल लगे, उसे क्षेत्र-पल्योपम कहा जाता है । इसका काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी है।
क्षेत्र-पल्योपम दो प्रकार का है--व्यावहारिक एवं सूक्ष्म । उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का है।
सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम इस प्रकार है :-कुएं में भरे यौगलिक के केश--खंडों से स्पृष्ट तथा अस्पृष्ट सभी आकाश-प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश निकालने की यदि कल्पना की जाय तथा यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुआँ समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाय, वह कालपरिमाण सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम है। इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम से इसका काल असंख्यात गुना अधिक होता है।
अनुयोगद्वार सूत्र १३८-१४० तथा प्रवचन-सारोद्धारद्वार १४८ में पल्योपम का विस्तार से विवेचन है।
६३. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जाव (वाणियगामाओ नयराओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं) विहरइ।
तदन्तर श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर के दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान कर एक दिन किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए।
६४. तए णं से आणंदे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव (उवलद्धपुण्णपावे आसव-संवरनिजरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकु सले, असहे जे, देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खसकिण्णर किंपुरिसगरूलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिकंखिए, निव्वितिगिच्छे, लद्धढे, गहियटे, पुच्छियटे, अभिगयढे, विणिच्छियटे, अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अद्वे, अयं परमटे; सेसे अणद्वे, ऊसियफलिहे, अवंगुयदुवारे, चियत्तंतेउरपरघरदारप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे निग्गंथे फासु एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं) पडिलाभेमाणे विहरइ।
तब आनन्द श्रमणोपासक हो गया। जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया था, [पुण्य और पाप का भेद जान लिया था, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण--जिसके आधार से क्रिया की जाए, बन्ध एवं मोक्ष को जो भली-भांति अवगत कर चुका था, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक--आत्मनिर्भर था, जो देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरूष, गरूड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन अनतिक्रमणीय