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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[८५ अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ--एवं खलु देवाणुप्पिया! समणस्य भगवओ महावीरस्स अंतेवासी • आणंदे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाझूसिए, भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं) अणवकंखमाणे विरहइ।
भगवान गौतम ने व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित भिक्षाचर्या के विधान के अनुरूप (उच्च, निम्न एवं मध्य कुलों में समुदानी भिक्षा हेतु) घुमते हुए यथापर्याप्त-जितना जैसा अपेक्षित था, उतना आहारपानी भली-भांति ग्रहण किया। ग्रहण कर वाणिज्यग्राम नगर से चले। चलकर जब कोल्लाक सन्निवेश के न अधिक दुर, न अधिक निकट से निकल रहे थे, तो बहुत से लोगों को बात करते सुना। वे आपस में यों कह रहे थे--देवानुप्रियो! श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी-शिष्य श्रमणोपासक आनन्द पोषधशाला में मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए अन्तिम संलेखना, (खान-पान का परित्याग--आमरण-अनशन) स्वीकार किए आराधना-रत हैं।
८०. तए णं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढं सोच्चा, निसम्म अयमेयारूवे अज्झत्थिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--तं गच्छामि णं आणंदं समणोवासयं पासामि। एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव पोसह-साला, जेणेव आणंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ।
अनेक लोगों से यह बात सुनकर, गौतम के मन में ऐसा भाव, चिन्तन, विचार या संकल्प उठा--मैं श्रमणोपासक आनन्द के पास जाऊं और उसे देखू । ऐसा सोचकर वे जहां कोल्लाक सन्निवेश था, पोषध-शाला थी, श्रमणोपासक आनन्द था, वहां गए।
८१. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठ जाव' हियए भगवं गोयमं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु भंते! अहं इमेणं उरालेणं जाव' धमणि-संतए जाए, नो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउब्भवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए, तुब्भे! इच्छाकारेणं अणभिओएणं इओ चेव एह, जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदामि नमसामि।
श्रमणोपासक आनन्द ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा। देखकर वह (यावत्) अत्यन्त त्र हुआ, भगवान् गौतम को वन्दन-नमस्कार कर बोला--भगवन्! मैं घोर तपश्चर्या से इतना क्षीण हो गया हूं कि मेरे शरीर पर उभरी हुई नाड़ियाँ दिखने लगी है। इसलिए देवानुप्रिय के--आपके पास आने तथा तीन बार मस्तक झुका कर चरणों मे वन्दना करने में असमर्थ हूं। अत एव प्रभो! आप ही स्वेच्छापूर्वक, अनभियोग से--किसी दबाव के बिना यहां पधारें, जिससे मैं तीन बार मस्तक झुकाकर देवानुप्रिय के--आपके चरणों में वन्दन, नमस्कार कर सकू।
८२. तए णं से भगवं गोयमे, जेणेव आणंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ। १. देखें सूत्र-संख्या १२ २. देखें सूत्र-संख्या ७३