Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव]
[९१ दायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौपे और स्वयं अपने आपको अधिकाधिक साधना में लगा दिया। शील, व्रत, त्याग-प्रत्याख्यान आदि की आराधना में उसने तन्मय भाव से अपने को रमा दिया। ऐसा करते हुए उसके जीवन में एक परीक्षा की घड़ी आई। वह पोषधशाला में पोषध लिए बैठा था। उसकी साधना में विघ्न करने के लिए एक मिथ्यात्वी देव आया। उसने कामदेव को भयभीत और संत्रस्त करने हेतु एक अत्यन्त भीषण, विकराल, भयावह पिशाच का रूप धारण किया, जिसे देखते ही मन थर्रा उठे।
पिशाच ने तीक्ष्ण खड्ग हाथ में लिए हुए कामदेव को डराया-धमकाया और कहा कि तुम अपनी उपासना छोड़ दो, नहीं तो अभी इस तलवार से काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। कामदेव विवेकी और साहसी पुरूष था, दृढ़निष्ठ था। परीक्षा की घड़ी ही तो वह कसौटी है, जब व्यक्ति खरा या खोटा सिद्ध होता है। कामदेव की परीक्षा थी। जब कामदेव अविचल रहा तो पिशाच और अधिक क्रुद्ध हो गया। उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसे ही कहा। पर, कामदेव पूर्ववत् दृढ एवं सुस्थिर बना रहा। तब पिशाच ने जैसा कहा था, कामदेव की देह के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। कामदेव आत्म-दृढता
और धैर्य के साथ इस घोर वेदना को सह गया, चूं तक नहीं किया। यह देवमायाजन्य था, इतनी त्वरा से हुआ कि तत्काल कामदेव दैहिक दृष्टि से यथावत् हो गया।
उस देव ने कामदेव को साधना से विचलित करने के लिए और अधिक कष्ट देने का सोचा। एक उन्मत्त, दुर्दान्त हाथी का रूप बनाया। कामदेव को आकाश में उछाल देने, दांतों से बींध देने और पैरों से रौंद देने की धमकी दी। एक बार, दो बार, तीन बार यह किया। कामदेव स्थिर और दृढ रहा। तब हाथी-रूपधारी देव ने कामदेव को जैसा उसने कहा था, घोर कष्ट दिया। पर, कामदेव की दृढता अविचल रही।
देव ने एक बार फिर प्रयत्न किया। वह उग्र विषधर सर्प बन गया। सर्प के रूप में उसने कामदेव को क्रूरता से उत्पीडित किया, उसकी गर्दन में तीन लपेट लगा कर छाती पर डंक मारा। पर, उसका यह प्रयत्न भी निष्फल गया। कामदेव जरा भी नहीं डिगा। परीक्षा की कसौटी पर वह खरा उतरा। विकार-हेतुओं के विद्यमान रहते हुए भी जो चलित नहीं होता, वास्तव में वही धीर है। अहिंसा हिंसा पर विजयिनी हुई। अहिंसक कामदेव से हिंसक देव ने हार मान ली। देव के मुंह से निकल पड़ा--'कामदेव'! निश्चय ही तुम धन्य हो। वह देव कामदेव के चरणों में गिर पड़ा, क्षमा मांगने लगा। उसने वह सब बताया कि सौधर्म देवलोक में उसने इन्द्र के मुँह से कामदेव की धार्मिक दृढता की प्रशंसा सुनी थी, जिसे वह सह नहीं सका। इसीलिए वह यों उपसर्ग करने आया।
उपासक कामदेव का मन उपासना में रमा था। जब उसने उपसर्ग को समाप्त हुआ जाना, तो स्वीकृत प्रतिमा का पारण--समापन किया।
शुभ संयोग ऐसा बना, भगवान् महावीर अपने जनपद-विहार के बीच चम्पा नगरी में पधारें । कामदेव ने यह सुना तो सोचा, कितना अच्छा हो, मैं भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर, पोषध का समापन करूं । तदनुसार वह पूर्णभद्र चैत्य, जहाँ भगवान् विराजित थे, पहुँचा। भगवान् के दर्शन किए, अत्यन्त प्रसन्न हुआ। भगवान् तो सर्वज्ञ थे। जो कुछ घटित हुआ, जानते ही थे। उन्होंने कामदेव को