Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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९४]
[उपासकदशांगसूत्र भगवान् महावीर पधारें। समवसरण हुआ। गाथापति आनन्द की तरह गाथापति कामदेव भी अपने घर से चला--भगवान् के पास पहुंचा, श्रावक-धर्म स्वीकार किया।
___ आगे की घटना भी वैसी ही है, जैसी आनन्द की। अपने बड़े पुत्र, मित्रों तथा जातीय जनों की अनुमति लेकर कामदेव जहां पोषध-शाला थी, वहां आया, (आकर आनन्द की तरह पोषध-शाला का प्रमार्जन किया--सफाई की, शौच एवं लघुशंका के स्थान का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर कुश का बिछौना लगाया, उस पर स्थित हुआ। वैसा कर पोषध-शाला में पोषध स्वीकार किया,) श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति--धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हो गया। देव द्वारा पिशाच के रूप में उपसर्ग
९३. तए णं तस्स कामदेवस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्त-काल-समयंसि एगे देवे मायीभिच्छदिट्ठी अंतियं पाउब्भूए।
___ (तत्पश्चात् किसी समय) आधी रात के समय श्रमणोपासक कामदेव के समक्ष एक मिथ्यादृष्टि, मायावी देव प्रकट हुआ। विवेचन
उत्कृष्ट तपश्चरण, साधना एवं धर्मानुष्ठान के सन्दर्भ में भयोत्पादक तथा मोहोत्पादक-दोनों प्रकार के विध्न उपस्थित होते रहने का वर्णन भारतीय वाङ्मय में बहुलता से प्राप्त होता है। साधक के मन में भय उत्पन्न करने के लिए जहां राक्षसों तथा पिशाचों के क्रूर एवं नृशंस कर्मों का उल्लेख है, वहां काम व भोग की ओर आकृष्ट करने के लिए, मोहित करने के लिए वासना-प्रधान पात्र भी प्रयत्न करते देखे जाते हैं।
वैदिक वाङ् मय में ऋषियों के तप एवं यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने, उन्हें दूषित करने हेतु राक्षसों द्वारा उपद्रव किये जाने के वर्णन अनेक पुराण-ग्रन्थों तथा दूसरे साहित्य में प्राप्त होते हैं। दूसरी ओर सुन्दर देवांगनाओं द्वारा उन्हें मोहित कर धर्मानुष्ठान से विचलित करने के उपक्रम भी मिलते हैं।
बौद्ध वाङ् मय में भी भगवान् बुद्ध के 'मार-विजय' प्रभृति अनेक प्रसंगों में इस कोटि के वर्णन उपलब्ध हैं।
जैन साहित्य में भी ऐसे वर्णन-क्रम की अपनी परम्परा है। उत्तम, प्रशस्त धर्मोपासना को खण्डित एवं भग्न करने के लिए देव, पिशाच आदि द्वारा किये गये उपसर्गों--उपद्रवों का बड़ा सजीव एवं रोमांचक वर्णन अनेक आगम-ग्रन्थों तथा इतर साहित्य में प्राप्त होता है, जहां रौद्र, भयानक एवं वीभत्स--तीनों रस मूर्तिमान, प्रतीत होते हैं।
प्रस्तुत वर्णन इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
९४. तए णं से देवे एगं महं पिसाय-रूवं विउव्वइ। तस्स णं देवस्स पिसाय-रूवस्स इमे एयारूवे वण्णा-वासे पण्णत्ते--सीसं से गो-किलिंज-संठाण-संठियं सालिभसेल्ल