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[उपासकदशांगसूत्र धम्म-ज्झाणोवगए विहरइ।
श्रमणोपासक कामदेव उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर भी अभीत (अत्रस्त, अनुद्विग्न, अक्षुभित, अविचलित, अनाकुल एवं शान्त) रहा, अपने धर्मध्यान में उपगत-- संलग्न रहा।
९९. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवास अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता आसुरत्ते ४(रूठे कुविए चंडिक्किए) ति-वलि भिउडिं निडाले साहटु, कामदेवं समणोवासयं नीलुप्पल जाव' असिणा खंडाखंडिं करे।।
___जब पिशाच रूप धारी उस देव ने श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय भाव से उपासना-रत देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, उसके ललाट में त्रिबलिक--तीन बल चढ़ी भृकुटि तन गई उसने तलवार से कामदेव पर वार किया और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
१००. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं, जाव(विउलं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं) दुरहियासं वेयणं सम्मं सहइ, जाव (खमइ, तितिक्खइ,) अहियासेइ।
श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र (विपुल--अत्यधिक, कर्कश-कठोर, प्रगाढ, रौद्र, कष्टप्रद) तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता (क्षमा और तितिक्षा) पूर्वक झेला। हाथी के रूप में उपसर्ग
१०१. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवास अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंधाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोभित्तए वा, विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितो सणियं सणियं पच्चोसक्का, पच्चोसक्कित्ता, पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्वं पिसाय-रूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं हत्थि-रूबे विउव्वइ,सत्तंग-पइट्ठियं, सम्म संठियं, सुजायं, पुरओ उदग्गं, पिट्ठओ वराहं, अयाकुच्छिं, अलंब-कुच्छिं, पलंब-लंबोदराधरकरं, अब्भुग्गय-मउल-मल्लिया-विमल-धवल-दंतं, कंचणकोसी-पविट्ठ-दंतं, आणामियचाव-ललिय-संवल्लियग्ग-सोण्डं, कुम्म-पडिपुण्ण-चलगं, वीसइ-नक्खं अल्लीणपमाण-जुत्तपुच्छं, मत्तं मेहमिव गुलगुलेन्तं मण-पवण-जइणवेगं दिव्वं हत्थिरूवं विउव्वइ।
जब पिशाच रूप धारी देव ने देखा, श्रमणोपासक कामदेव निर्भीक भाव से उपासना में रत है, वह श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन-जिन-धर्म से विचलित, क्षुभित, विपरिणामितविपरीत परिणाम युक्त नही कर सका है, उसके मनोभावों को नहीं बदल सका है, तो वह श्रान्त, १. देखें सूत्र-संख्या ९७। २. देखें सूत्र-संख्या ९५ । ३. देखें सूत्र-संख्या ९५।