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[उपासकदशांगसूत्र
सम्बोधित कर उन तीनों उपसर्गों का जिक्र किया, जिन्हें कामदेव निर्भय भाव से झेल चुका था। भगवान् ने कामदेव को सम्बोधित कर कहा--कामदेव! क्या यह सब घटित हुआ? कामदेव ने विनित भाव से उत्तर दिया-भन्ते! ऐसा ही हुआ।
भगवान् महावीर ने कामदेव के साथ हुई इस घटना को दृष्टि में रखते हुए उपस्थित साधुसाध्वियों को सम्बोधित करते हुए कहा-एक श्रमणोपासक गृहस्थी में रहते हुए भी जब धर्माराधना में इतनी दृढता बनाए रख सकता है तो आप सबका तो ऐसा करना कर्त्तव्य है ही। साधक को कभी भी कष्टों से घबराना नहीं चाहिए, उनको दृढता से झेलते रहना चाहिए। इससे साधना निर्मल और उज्जवल बनती है।
भगवान् की दृष्टि में कामदेव का आचरण धार्मिक दृढता के सन्दर्भ में एक प्रेरक उदाहरण था, इसलिए उन्होंने सार्वजनिक रूप में उसकी चर्चा करना उपयोगी समझा।
कामदेव ने जिज्ञासा से भगवान् से अनेक प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया, वन्दन-नमस्कार कर वापस लौट आया। पोषध का समापन किया।
कामदेव अपने को उत्तरोत्तर, अधिकाधिक साधना में जोड़ता गया। उसके परिणाम उज्जवल से उज्ज्वलत्तर होते गए, भावना अध्यात्म में रमती गई। उसके उपासनामय जीवन का संक्षिप्त विवरण यों
कामदेव ने बीस वर्ष तक श्रमणोपासक-धर्म का सम्यक् परिपालन किया, ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की, एक मास की अन्तिम संलेखना तथा अनशन द्वारा समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह सौधर्म कल्प के सोधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरूणाभ नामक विमान में चार पल्योपम आयुस्थितिक देव हुआ।