________________
प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[८३ धूमप्रभा, तमः प्रभा एवं महातमःप्रभा। ये क्रमशः एक दूसरे के नीचे अवस्थित हैं। रत्नप्रभा भूमि में लोलुपाच्युत प्रथम नरक का एक ऊपरी विभाग है, जहाँ चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नारक रहते
तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे अध्याय में अधोलोक और मध्यलोक का तथा चौथे अध्याय में उर्ध्वलोक का वर्णन है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है।
श्रमणोपासक आनन्द के अवधिज्ञान का विस्तार उसके अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के क्षयोपशम के कारण चारों दिशाओं में उपर्युक्त सीमा तक था।
७५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया जाव पडिगया।
उस काल--वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय भगवान् महावीर समवसृत हुए--पधारे। परिषद् जुड़ी, धर्म सुनकर वापिस लौट गई।
७६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे गोयम-गोत्तेणं, सत्तुस्से हे , समचउरं ससंठाणसंठिए, वजरिसहनारायसंघयणे, कणगपुलगनिघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दिततवे, तत्ततवे, घोरतवे, महातवे, उराले, घोरगुणे, घोरतवस्सी घोर-बंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्त-विउलतेउ-लेस्से, छठें-छठेणं अणिक्खित्तेणं तवो-कम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे
विहरइ।
उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्त्र-संस्थान-संस्थित थे--देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचनामय शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-सुदृढ अस्थि-बन्धयुक्त विशिष्ट-देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-कर्मों की भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्ततपस्वी--जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल--प्रबल--साधना में सशक्त, घोरगुण--परम उत्तम--जिनको धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए--ऐसे गुणों के धारक, घोर तपस्वी-प्रबल तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी-कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्तशरीर-दैहिक सारसंभाल या सजावट से रहित थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए, संयमाराधना तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित--संस्कारित करते हुए विहार करते थे।
१. देखें सूत्र-संख्या ११।