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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[८१ हो गया। आनन्द : अवधि-ज्ञान
अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य--शक्ति आत्मा का स्वभाव है। कर्म आवरण है, जैनदर्शन के अनुसार वे पुद्गलात्मक हैं, मूर्त हैं। आत्म-स्वभाव को वे आवृत करते हैं। आत्मस्वभाव उनसे जितना, जैसा आवृत होता है, उतना अप्रकाशित रहता है। कर्मों के आवरण आत्मा के स्वोन्मुख प्रशस्त अध्यवसाय, उत्तम परिणाम, पवित्र भाव एवं तपश्चरण से जैसे-जैसे हटते जाते हैं - -मिटते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा का स्वभाव उद्भासित या प्रकट होता जाता है।
... ज्ञान को आवृत करने वाले कर्म ज्ञानावरण कहे जाते हैं। जैनदर्शन में ज्ञान के पांच भेद है-- मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मन:-पर्याय-ज्ञान, तथा केवल-ज्ञान।
इनका आवरण या आच्छादन करने वाले कर्म-पुद्गल क्रमशः मति-ज्ञानावरण, श्रुत-ज्ञानावरण, अवधि-ज्ञानावरण, मनःपर्याय-ज्ञानावरण तथा केवल-ज्ञानावरण कहे जाते है।
इन आवरणों के हटने से ये पांचों ज्ञान प्रकट होते हैं । परोक्ष और प्रत्यक्ष के रूप में इनमें दो भेद हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान किसी दूसरे माध्यम के बिना आत्मा द्वारा ही ज्ञेय को सीधा ग्रहण करता है। परोक्षज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच नहीं होती। मति-ज्ञान और श्रुत-ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि वहाँ मन
और इन्द्रियों का सहयोग अपेक्षित है। वैसे स्थूल रूप में हम किसी वस्तु को आँखों से देखते हैं, जानते हैं, उसे प्रत्यक्ष देखना कहा जाता है। पर वह केवल व्यवहार-भाषा है, इसलिए दर्शन में उसकी संज्ञा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । निश्चय-दृष्टि से वह प्रत्यक्ष में नहीं आता क्योंकि ज्ञाता आत्मा और ज्ञेय पदार्थ में आँखों के माध्यम से वहाँ सम्बन्ध है, सीधा नहीं है।
अवधि-ज्ञान, मनःपर्याय-ज्ञान, और केवल-ज्ञान में इन्द्रिय और मन के साहाय्य की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ ज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच होती है। इसलिए ये प्रत्यक्ष-भेद में आते हैं। इनमें केवल-ज्ञान को सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है और अवधि व मनः पर्याय को विकल या अपूर्ण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है, इनसे ज्ञेय के सम्पूर्ण पर्याय नहीं जाने जा सकते।
अवधि-ज्ञान वह अतीन्द्रिय ज्ञान है, जिसके द्वारा व्यक्ति, द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की एक मर्यादा या सीमा के साथ मूर्त या सरूप पदार्थों को जानता है । अवधि-ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम जैसा मन्द या तीव्र होता है, उसके अनुसार अवधि-ज्ञान की व्यापकता होती है।
अवधि-ज्ञान के सम्बन्ध में एक विशेष बात और है--देव-योनी और नरक-योनी में वह जन्म-सिद्ध है। उसे भव-प्रत्यय अवधि-ज्ञान कहा जाता है। इन योनियों में जीवों को जन्म धारण करते ही सहज रूप में योग्य या उपयुक्त क्षयोपशम द्वारा अवधि ज्ञान उत्पन्न होता है । इसका आशय यह है कि अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम हेतु उन्हें तपोमूलक प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वैसा वहाँ शक्य भी नहीं है।
तप, व्रत, प्रत्याख्यान आदि निर्जरामूलक अनुष्ठानों द्वारा अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के