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[उपासकदशांगसूत्र पतंजलि ने योगसूत्र में कर्मों की शुक्ल, कृष्ण तथा शुक्ल-कृष्ण (अशुक्लाकृष्ण)--तीन प्रकार का बतलाया है। कर्मों के ये वर्ण, उनकी प्रशस्तता तथा अप्रशस्तता के सूचक है।'
ऊपर पुद्गलात्मक द्रव्य-लेश्या से आत्मा के प्रशस्त-अप्रशस्त परिणाम उत्पन्न होने की जो बात कही गई है, इसे कुछ और गहराई से समझना होगा। द्रव्य-लेश्या के साहाय्य से आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, अर्थात् भाव-लेश्या निष्पन्न होती है, तात्विक दृष्टि से उनके दो कारण हैं-- मोह-कर्म का उदय अथवा उसका उपशम, क्षय या क्षयोपशम। मोह-कर्म के उदय से जो भव-लेश्याएं निष्पन्न होती हैं, वे अशुभ या अप्रशस्त होती हैं तथा मोह-कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशप से जो भाव-लेश्याएं होती है, वे शुभ या प्रशस्त होती हैं । कृष्णलेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या ये मोह कर्म के उदय से होती है, इसलिए अप्रशस्त हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या ये उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होती हैं, इसलिए शुभ या प्रशस्त हैं। आत्मा में एक और औदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव उद्भूत होते हैं, दूसरी ओर वैसे पुद्गल या द्रव्य-लेश्याएं निष्पन्न होती हैं। इसलिए एकान्त रूप से न केवल द्रव्य-लेश्या भाव-लेश्या का कारण है और न केवल भाव-लेश्या द्रव्य-लेश्या का कारण है। ये अन्योन्याश्रित हैं।
___ ऊपर द्रव्य-लेश्या से भाव-लेश्या या आत्म-परिणाम उद्भूत होने की जो बात कही गई है, वह स्थूल दृष्टि से है।
द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या की अन्योन्याश्रितता को आयुर्वेद के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। आयुर्वेद में पित्त, कफ तथा वात--ये तीन दोष माने गए हैं । जब पित्त प्रकुपित्त होता है या पित्त का देह पर विशेष प्रभाव होता है तो व्यक्ति क्रुद्ध होता है, उत्तेजित हो जाता है । क्रोध एवं उत्तेजना से फिर पित्त बढ़ता है। कफ जब प्रबल होता है तो शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य पैदा होता है। शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य से पुनः कफ बढ़ता है। वात की प्रबलता चांचल्य--अस्थिरता व कम्पन पैदा करती है। चंचलता एवं अस्थिरता से फिर वात की वृद्धि होती है। यों पित्त आदि दोष तथा इनसे प्रकटित क्रोध आदि भाव अन्योन्याश्रित हैं। द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या का कुछ इसी प्रकार का सम्बन्ध है।
जैन वाङ्मय के अनेक ग्रन्थों में लेश्या का यथा-प्रसंग विश्लेषण हुआ है । प्रज्ञापनासूत्र के १७ वें पद में तथा उत्तराध्ययनसूत्र के ३४ वें अध्ययन में लेश्या का विस्तृत विवेचन है, जो पठनीय है। आधुनिक मनोविज्ञान के साथ जैनदर्शन का यह विषय समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टि से अनुशीलन करने योग्य है। अस्तु।
__ प्रस्तुत सूत्र में आनन्द के उत्तरोत्तर प्रशस्त होते या विकास पाते अन्तर्भावों का जो संकेत है, उससे प्रकट होता है कि आनन्द अन्त:परिष्कार या अन्तर्मार्जन की भूमिका में अत्यधिक जागरूक था। फलतः उसकी लेश्याएं, आत्म-परिणाम प्रशस्त से प्रशस्ततर होते गए और उसको अवधि-ज्ञान उत्पन्न १. कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्
---पातंजलयोगसूत्र ४.७