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[ उपासकदशांगसूत्र
न विचलित किये जाने योग्य था, निग्रन्थ प्रवचन में जो निःशंक - शंका रहित, निष्कांक्ष--आत्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा-रहित, विचिकित्सा संशय रहित, लब्धार्थ धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किये हुए, गृहीतार्थ -- उसे ग्रहण किये हुए, पृष्टार्थ -- जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थस्वायत्त किये हुए, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप से आत्मसात् किए हुए था एवं जो अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था, जिसका यह निश्चित विश्वास था कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ- प्रयोजनभूत है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ - अप्रयोजनभूत हैं । 'ऊसिय-फलिहे ' उठी हुई अर्गला है जिसकी, ऐसे द्वार वाला अर्थात् सज्जनों के लिये उसके द्वार सदा खुले रहते थे । अवंगु दुवारे - खुले द्वार वाला अर्थात् दान के लिए उसके द्वार सदा खुले रहते थे । चियत्त का अर्थ है उन्होंने किसी के अन्तःपुर और पर-घर में प्रवेश को त्याग दिया था अथवा वह इतना प्रामाणिक था कि उसका अन्त: पुर में और परघर में प्रवेश भी प्रीति- जनक था, अविश्वास उत्पन्न करने वाला नहीं था । चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को जो [आनन्द ] परिपूर्ण पोषध का अच्छी तरह अनुपालन करता हुआ, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक -- अचित्त या निर्जीव, एषणीय- उन द्वारा स्वीकार करने योग्य -- निर्दोष, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद - प्रोञ्छन, औषध, भेषज, प्रातिहारिक-लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ ] धार्मिक जीवन जी रहा था ।
६५. तए णं सा सिवनंदा भारिया समणोवासिया जाया जाव' पडिला भेमाणी विहरइ ।
आनन्द की पत्नी शिवनन्दा श्रमणोपासिका हो गई । यावत् [ जिसे तत्त्वज्ञान प्राप्त था, श्रमणनिर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय पदार्थों द्वारा प्रतिलाभित करती हुई ] धार्मिक जीवन जीने लगीं।
६६. तए णं आणंदस्य समणोवासगस्स उच्चावएहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वइक्कंताइं । पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था -- एवं खलु अहं वाणियगामे नयरे बहूणं राईसर जाव' संयस्स वि य णं कुडुंबस्स जाव (मेढी, पमाणं, ) आधारे, तं एएणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव ( पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अह पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास- किंसुय-सुयमुहगुंजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए, उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा ) जलते विउलं असणपाणखाइमसाइमं जहा पूरणो, जाव ( उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइ - नियगसण-संबंधि-परिजणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ - नियम- सयण-संबंधि-परिजणं विउलेणं
१. देखें सूत्र - संख्या ६४ । २. देखें सूत्र-संख्या ५।