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[ उपासकदशांगसूत्र
९. भृतक-प्रेष्यारम्भ-वर्जन - प्रतिमा पूर्ववर्ती प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करता हुआ उपासक हुआ इस प्रतिमा में आरम्भ का परित्याग कर देता है । अर्थात् वह स्वयं आरम्भ नहीं करता, औरों से नहीं कराता, किन्तु आरम्भ करने की अनुमति देने का उसे त्याग नहीं होता ।
अपने उद्देश्य से बनाए गए भोजन का वह परिवर्जन नहीं करता, उसे ले सकता है। इस प्रतिमा की आराधना की न्यूनतम अवधि एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट नौ मास है ।
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१०. उद्दिष्ट-भक्त-वर्जन - प्रतिमा -- पूर्वोक्त नियमों का अनुपालन करता हुआ उपासक इस प्रतिमा में उद्दिष्ट-- अपने लिए तैयार किए गए भोजन आदि का भी परित्याग कर देता है । वह अपने आपको लौकिक कार्यों से प्रायः हटा लेता है । उस सन्दर्भ में वह कोई आदेश या परामर्श नहीं देता । अमुक विषय में वह जानता है अथवा नहीं जानता -- केवल इतना सा उत्तर दे सकता है।
इस प्रतिमा का आराधक उस्तरे से सिर मुंडाता है, कोई शिखा भी रखता है।
इसकी आराधना की समयावधि न्यूनतम एक, दो या तीन दिन तथा उत्कृष्ट दस मास I
११. श्रमणभूत- प्रतिमा -- पूर्वोक्त सभी नियमों का परिपालन करता हुआ साधक इस प्रतिमा
में अपने को लगभग श्रमण या साधु जैसा बना लेता है। उसकी सभी क्रियाएं एक श्रमण की तरह यतना और जागरूकतापूर्वक होती हैं । वह साधु जैसा वेश धारण करता है, वैसे ही पात्र, उपकरण आदि रखता है । मस्तक के बालों को उस्तरे से मुंडवाता है, यदि सहिष्णुता या शक्ति हो तो लुंचन भी कर सकता है। साधु की तरह वह भिक्षा-चर्या से जीवन-निर्वाह करता है । इतना अन्तर है -- साधु हर किसी के यहाँ से भिक्षा हेतु जाता है, यह उपासक अपने सम्बन्धियों के घरों में ही जाता है, क्योंकि तब तक उनके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध पूरी तरह मिट नही पाता ।
इसकी आराधना का न्यूनतम काल-परिमाण एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट ग्यारह मास है ।
इसे श्रमणभूत इसीलिए कहा गया है -- यद्यपि वह उपासक श्रमण की भूमिका में तो नहीं होता, पर प्राय: श्रमण-सदृश होता है ।
७२. तए णं से आणंदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं उरालेणं, विउलेणं पयत्तेणं, पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के जाव (लुक्खे, निम्मंसे, अट्ठिचम्मावणद्धे, किडिकिडियाभूए, किसे ) धमणिसंतए जाए ।
इस प्रकार श्रावक - प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल साधनोचित प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर सूख गया, [ रूक्ष हो गया, उस पर मांस नहीं रहा, हड्डियां और चमड़ी मात्र बची रही, हड्डियां आपस में भिड़-भिड़ कर आवाज करने लगीं,] शरीर में इतनी कृशता या क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगी।