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[उपासकदशांगसूत्र अपने स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य की और जैसे शीघ्रगामी बैलों से युक्त यावत् धार्मिक उत्तम रथ के लिए आदेश दिया गया था, उपस्थित किया।
__ आनन्द की पत्नी शिवनन्दा ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कार्य किये, कौतुक--देहसज्जा की दृष्टि से आंखों में काजल आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त-दुःस्वप्रादि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया, शुद्ध, उत्तम, मांगलिक वस्त्र पहने, थोड़े से-संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया। दासियों के समूह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हई। सवार होकर वाणिज्यग्राम नगर के बीच से गजरी, जहाँ दूतीपलाश चैत्य था, वहाँ आई, आकर धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, नीचे उतर कर दासियों के समूह से घिरी वहाँ गई जहाँ भगवान् महावीर विराजित थे। जाकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया, भगवान् के न अधिक निकट, न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो, नमन करती हुई, सुनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े, पर्युपासना करने लगी।
६०. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवनंदाए तीसे य महइ जाव' धम्मं कहेइ।
तब श्रमण भगवान महावीर ने शिवनन्दा को तथा उपस्थित परिषद् (जन-समूह) को धर्मदेशना दी।
६१. तए णं सा सिवनंदा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ट जाव' गिहिधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।
तब शिवनन्दा श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर तथा उसे हृदय में धारण करके अत्यन्त प्रसन्न हुई। उसने गृहि-धर्म-- श्रावकधर्म स्वीकार किया, स्वीकार कर वह उसी धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा की ओर चली गई। आनन्द का भविष्य
६२. भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--पहू णं भंते! आणंदे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे जाव पव्वइत्तए?
नो तिणढे समढे, गोयमा! आणंदे णं समणोवासए बहूई वासाइं समणोवासगपरियायं पाउणिहिइ, पाउणित्ता जाव ( एक्कारस य उवासगपडिमाओं सम्मं कारणं फासित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा) सोहम्मे कप्पे अरूणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिइ। तत्थ ण
१. देखें सूत्र--संख्या ११ । २. देखें सूत्र--संख्या १२। ३. देखें सूत्र--संख्या १२ ।