Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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जैनाचार्य पूज्य श्री जयमलजी म. ने चैत्य शब्द के एक सौ बारह अर्थों की गवेषणा की।
चैत्य शब्द के सन्दर्भ में भाषा-वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि किसी मृत व्यक्ति के जलाने के स्थान पर उसकी स्मृति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीन काल में परम्परा रही है । भारतवर्ष से बाहर भी ऐसा होता रहा है । चिति या चिता के स्थान पर लगाए जाने के कारण वह वृक्ष चैत्य कहा जाने लगा हो। आगे चलकर यह परम्परा कुछ बदल गई । वृक्ष के स्थान पर स्मारक के रूप में मकान बनाया जाने लगा। उस मकान में किसी लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाने लगी । यों उसने एक देवस्थान या मन्दिर का रूप ले लिया । वह चैत्य कहा जाने लगा। ऐसा होते-होते चैत्य शब्द सामान्य मन्दिरवाची भी हो गया।
[ उपासक दशांगसूत्र
चैत्य का एक अर्थ ज्ञान भी है। एक अर्थ यति या साधु भी है। आचार्य कुंदकुंद ने अष्ट-प्राभृत में चैत्य शब्द का इन अर्थों में प्रयोग किया है।
अन्य-यूथिक-परिगृहीत चैत्यों को वंदन, नमस्कार न करने का, उनके साथ आलाप - साप न करने का जो अभिग्रह आनन्द ने स्वीकार किया, वहाँ चैत्य का अर्थ उन साधुओं से लिया जाना चाहिए, जिन्होंने जैनत्व की आस्था छोड़कर पर दर्शन की आस्था स्वीकार कर ली हो और पर - दर्शन के अनुयायियों ने उन्हें परिगृहीत या स्वीकार कर लिया हो । एक अर्थ यह भी हो सकता है, दूसरे दर्शन में आस्था रखने वाले वे साधु, जो जैनत्व की आस्था में आ गए हों, पर जिन्होंने अपना पूर्व वेश नहीं छोड़ा हो, अर्थात् वेश द्वारा अन्य यूथ या संघ से संबद्ध हों। ये दोनों ही श्रावक के लिए वंदनीय नहीं होते। पहले तो वस्तुतः साधुत्वशून्य हैं ही, दूसरे - गुणात्मक दृष्टि से ठीक हैं, पर व्यवहार की दृष्टि से उन्हें वंदन करना समुचित नहीं होता। इससे साधारण श्रावकों पर प्रतिकूल असर होता है, मिथ्यात्व बढ़ने की आशंका बनी रहती है ।
जैसा ऊपर संकेत किया गया है, अन्य मतावलम्बी साधुओं को वन्दन, नमन आदि न करने की बात मूलतः आध्यात्मिक या धार्मिक दृष्टि से है। शिष्टाचार, सद्व्यवहार आदि के रूप में वैसा करना निषिद्ध नहीं है। जीवन में व्यक्ति को सामाजिक दृष्टि से भी अनेक कार्य करने होते हैं, जिनका आधार सामाजिक मान्यता या परम्परा होता है ।
५९. तए णं सा सिवनंदा भारिया आणंदेणं समणोवासएणं एवं वृत्ता समाणा तुट्ठा जाव चित्तमाणंदिया, पीइमणा, परम- सोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु 'एवं सामि' ! त्ति आणंदस्स समणोवासगस्स एयमट्ठं विणएण पडिसुणेइ ।
तसे आणंदे समणोवासए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-
१. जयध्वज पृष्ठ ५७३-७६
२. बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेदयाई अण्णं च ।
पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ॥