Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[६३ विवेचन
श्रावक के बारह व्रत, पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत के रूप में विभाजित हैं । अणुव्रत मूल व्रत है। शिक्षाव्रत उनके पोषण, संवर्धन एवं विकास के लिए है। शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। ये व्रत अणुव्रतों के अभ्यास या साधना में स्थिरता लाने में विशेष उपयोगी हैं।
शाब्दिक भेद से इन सात (शिक्षा) व्रतों का विभाजन दो प्रकार से किया जाता रहा है। इन सातों को शिक्षाव्रत तो कहा ही जाता है, जैसा पहले उल्लेख हुआ है, इनमें पहले तीन-अनर्थदण्डविरमण, दिग्व्रत, तथा उपभोग-परिभोगपरिमाण गुणव्रत और अन्तिम चार-सामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग, शिक्षाव्रत कहे गये हैं।
गुणव्रत कहे जाने के पीछे साधारणतया यही भाव है कि ये अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायक हैं अथवा साधक के चारित्रमूलक गुणों की वृद्धि करते हैं। अगले चार मुख्यतः अभ्यासपरक हैं, इसलिए उनके साथ “शिक्षा" शब्द विशेषणात्मक दृष्टि से सहजतया संगत है।
वैसे सामान्य रूप में गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत दोनों ही अणुव्रतों के अभ्यास में सहायक हैं, इसलिए स्थूल रूप में सातों को जो शिक्षाव्रत कहा जाता है, उपयुक्त ही है।
. सात शिक्षाव्रतों का जो क्रम औपपातिक सूत्र आदि में है, उसका यहाँ उल्लेख किया गया है। आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में क्रम कुछ भिन्न है। तत्त्वार्थसूत्र में इन व्रतों का क्रम दिग्, देश, अनर्थ-दंड-विरति, सामायिक, पोषधोपवास, उपभोग-परिभोग-परिमाण तथा अतिथि-संविभाग के रूप में है वहाँ इन्हें शिक्षाव्रत न कह कर केवल यही कहा गया है कि श्रावक इन व्रतों से भी संपन्न होता है। किन्तु क्रम में किंचित् अन्तर होने पर भी तात्पर्य में कोई भेद नहीं है।
आनन्द ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण करने के पश्चात् जो विशेष संकल्प किया, उसके पीछे अपने द्वारा विवेक और समझपूर्वक स्वीकार किए गए धर्म-सिद्धान्तों में सुदृढ एवं सुस्थिर बने रहने की भावना है। अतएव वह धार्मिक दृष्टि से अन्य धर्म-संघों के व्यक्तियों से अपना सम्पर्क रखना नही चाहता ताकि जीवन में कोई ऐसा प्रसंग ही न आए, जिससे विचलन की आशंका हो।
प्रश्न हो सकता है, जब आनन्द ने सोच-समझ कर धर्म के सिद्धान्त स्वीकार किये थे तो उसे यों शंकित होने की क्या आवश्यकता थी? साधारणतया बात ठीक लगती है, पर जरा गहराई में जाएं। मानव मन बड़ा भावुक है। भावुकता कभी कभी विवेक को आवृत कर देती है, फलतः व्यक्ति उसमें बह जाता है, जिससे उसकी सद् आस्था डगमगा सकती है इसी से बचाव के लिए आनन्द का यह अभिग्रह है।
इस सन्दर्भ में प्रयुक्त चैत्य शब्द कुछ विवादास्पद है। चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। सुप्रसिद्ध
१. दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च।
--तत्त्वार्थसूत्र ७. १६