Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
[२९
प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] आनन्द की प्रतिक्रिया
१२. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव (चित्तमाणदिए पीइ-मणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उठाए उढेइ, उढेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता) एवं वयासी--सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं, भंते! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं, भंते ! तहमेयं, भंते ! अवितहमेयं, भंते ! इच्छियमेयं, भंते ! पडिच्छियमेयं, भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं, भंते ! से जहेयं तुब्भे वयह ति कटु, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर-तलवरमाडंबिय-कोडुंबिय-सेट्ठि-सेणावई-सत्थवाहप्पभिइआ मुण्डा भवित्ता अगाराओअणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव (भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त-सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धम्म पडिवज्जिस्सामि। अहासुहं देवाणुप्पिया ! पडिबंधं करेह।
• तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित व परितुष्ट होता हुआ यावत [चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय होकर उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर] यों बोला--भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है। निर्ग्रन्थ-प्रवचन मुझे रुचिकर है। वह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित [स्वीकृत] है, इच्छित-प्रतीच्छित है। यह वैसा ही है, जैसा आपने कहा। देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके पास अनेक राजा, ऐश्वर्यशाली, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठि, सेनापति एवं सार्थवाह आदि मुंडित होकर, गृह-वास का परित्याग कर अनगार के रूप में प्रवजित हुए, मैं उस प्रकार मुंडित होकर [गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर अनगारधर्म में] प्रव्रजित होने में असमर्थ हूं, इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म--श्रावक-धर्म ग्रहण करना चाहता हूं।
____ आनन्द के यों कहने पर भगवान् ने कहा--देवानुप्रिय ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा ही करो, पर विलम्ब मत करो।
व्रत-ग्रहण अहिंसा व्रत
१३. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए